बातें आधुनिक सोच कबीलाई - समझाविश बाबू
अभी दो तीन दिन पहले एक प्रतिष्ठित न्यूज़ चैनल पर न्यूज़ सुन रहा था,जिसमे उत्तर प्रदेश के वर्तमान राजनीति पर चर्चा की जा रही थी,ये बताया जा रहा था कि उत्तर प्रदेश में सत्तारून दल आने वाले चुनाव में जातिगत समीकरण के आधार पर पिछड़ी जातियों को साधना चाहती है और उस आधार पर मंत्रिमंडल विस्तार और निगमों,आयोगों में रिक्त पद को भरना चाह रही है,इसमें ये भी उल्लेख किया जा रहा था कि विभिन्न पिछड़ी जातियों का प्रतिशत लगभग क्या है और उनमे से यादव जाती का ज्यादा प्रतिशत के वोट समाजवादी पार्टी के ही खाते में जाते हैं इसी कारण कुर्मी,राजभर,तेली,निषाद,कुशवाहा आदि जाति को भारतीय जनता पार्टी साधने का जतन कर रही है,जब कि अनुसूचित जाति का अधिकाँश भाग बहुजन समाज पार्टी से जुड़ा हुआ है,इन सब बातों को सुनने के बाद मेरे मन में उथल-पुथल होना शुरू हो गया कि हम तो अपने को २१वीं शताब्दी का एक बहुत ही आधुनिक और विकसित प्राणी मानते हैं पर सोच तो हमारी बहुत ही घटिया है,आज भी हम जातियों में उलझे हुए हैं,हम बात तो विकास और सबके साथ का करते हैं पर चुनाव जातिगत समीकरण पर लड़ते हैं,यदि कहीं आवश्यक हो गया तो हिंदुत्व और धर्म का नाम आगे कर देंगे,यानी कि हमारा मकसद केवल और केवल चुनाव जीतना है देश को जाति,धर्म कि सोच से ऊपर उठाना नहीं है,क्यूंकि यदि ये हो जाएगा तो चुनने का मापदंड ही बदल जाएगा जो राजनीतिक पार्टियों के दृष्टि से कत्तई उचित नहीं होगा और उनके मनसूबे पर पानी फेर देगा।
यहाँ प्राचीन इतिहास को जानना जरुरी है,सबसे प्राचीन सभ्यता जिसे सिंधुघाटी कि सभ्यता या फिर हड़प्पा सभ्यता के नाम से जाना जाता है जो २५०० ईसा पूर्व की है,इस सभ्यता में बच्चों के नाम के आगे माता का नाम जोड़ने कि परम्परा थी और कोई जाति व्यवस्था नहीं थी,जाति कर्म प्रधान थी,कर्म के आधार पर ही जाति पहचानी जाती थी जो पूर्व वैदिक काल यानी कि १५०० ईसा पूर्व के लगभग तक थी जैसे-जैसे उत्तर वैदिक काल और बाद के काल आते गए जाति व्यवस्था कर्म से परवर्तित होकर जन्म आधारित हो गयी,उस समय चार मुख्य जातियों कि परिकल्पना की गयी ब्राह्मण,छत्रिय,वैश्य और शूद्र, जिसमे ब्राह्मण को सर्वश्रेष्ठ माना गया,फिर धीरे-धीरे तमाम जातियां और उपजातियां बनती गयी और पूरा समाज एक जातियों के जाल से घिर गया।आजादी के बाद से चुनाव में जातिगत समीकरण की गणित धीरे-धीरे बढ़ता गया जो अब चरम पर है,आज सभी राजनीतिक पार्टियां जातिगत बिसात बैठाने में एक दूसरे को सह और मात देने की होड़ लगाए रहती हैं,जब-जब देश-प्रदेश का चुनाव आता है तब-तब ये आंकड़ेबाजी तेज हो जाती है,खासतौर से प्रदेश के चुनाव में ये ज्यादा उबाल मारता है,सभी पार्टियां टिकट का वितरण उस विधानसभा क्षेत्र के जातिगत समीकरण को ध्यान में रख कर करती है,इससे अलग करना होता है तो धर्म भी आधार बन जाता है,अब आप सोचिये काम तो निचले स्तर पर आ गया,देखा जाएगा जाती और धर्म,यही कारण है की लगभग हर प्रमुख जातियों का अखिल भारतीय या फिर प्रदेश स्तर पर संघटन बन गया है और उसके एक अध्यक्ष हो जाते हैं जो फिर राजनीतिक पार्टियों से गुणा गणित लगाने में जुटे रहते हैं,और इसमें सफल भी रहती है,हाँ ये अवश्य है की अपनी जातियों का स्तर भले न ऊपर उठा पाएं अक्सर अपना स्तर अवश्य उठा लेते हैं,यही क्रम चलता रहता है,मकसद सत्ता में भागीदारी और अपना स्तर उठाना ही रहता है,अगर मकसद सही है तो बनाइये न अपने बीच के सबसे शिक्षित और गरीब तथा ईमानदार व्यक्ति को मंत्री,लेकिन नहीं आप ये कहेंगे की वो चुन के नहीं आया है और वो चुन के आ भी नहीं सकता है क्यों की चुनाव में ये तीन योग्यता जो रखता है वो चुनाव लड़ ही नहीं सकता,कहाँ से लाएगा खर्च करने के लिए पचास लाख-एक करोड़,नहीं ला सकता है,मकसद घूम फिर कर केवल अपना लाभ ही होता है,जब हम इतने संक्रीण दायरे में सोचते हैं तो फिर बहुत बड़ी-बड़ी बातें देश हित में समाज हित में क्यों करते हैं हमें तो केवल अपने लाभ और सत्ता की प्राप्ति या फिर सत्ता की भागीदारी की बात करना चाहिए,हद तो तब हो जाती है जब कोई बड़ा अपराधी मारा जाता है तो उसकी जाती को लेकर समीक्षा होने लगती है,जब कि अपराधी तो अपराधी होता है चाहे वो किसी जाती का हो,लेकिन जो लम्बरदारी करते हैं वो अपना हित देखतेहैं कि क्या बोलने में वो अपनी जाती में पॉपुलर हो जाएंगे न कि वो समाज का हित सोचते हैं हाँ ये अवश्य है कि कहते यही हैं कि उनसे बड़ा समाज का हितैषी कोई नहीं है और ऐसे-ऐसे तर्क-कुतर्क और दर्शन रखने का प्रयास करेंगे कि सुनने वाले का माथा चकरा जाए,चैनलों के डिबेटोँ में ये आपको अक्सर देखने को मिल जाएगा,हम सब आज २१वीं शताब्दी में भी इस कदर जातियों के मकड़जाल में जकड़े हुए हैं या फिर जकड़ा दिए गएँ हैं कि उससे बाहर निकल ही नहीं पा रहे हैं।
यदि इसके कारणों में जाया जाये तो अशिक्षा और उसके साथ-साथ शिक्षा का निम्न स्तर है जो निचे दिए गए २०११ के साक्षरता दर से भी स्पष्ट हो रहा है--
शिक्षा की गुडवत्ता भी अत्यंत ख़राब है,यहाँ पर २०११ के जनगणना के अनुसार जो डाटा प्रदर्शित हो रहा है इसके अनुसार देश में साक्षरता ७३ प्रतिशत माना जा सकता है और कोई भी प्रदेश ६० प्रतिशत से कम नहीं है उत्तर प्रदेश का दर ६७ प्रतिशत है,जो आज कि दृष्टि से देखा जाए तो आज देश में साक्षरता दर ७७ प्रतिशत से ऊपर है और उत्तर प्रदेश का ७३ प्रतिशत है,यहाँ दो बाते उठती हैं पहला कि इस माने में देखा जा सकता है कि प्रतिशत तो अच्छा है,दूसरा ये कि ७३ साल आजादी के बाद भी हम १०० प्रतिशत देश को साक्षर नहीं कर पाए,आखिर ये हमारी कौन सी प्रगति है,जो सबसे मूलभूत समाज कि आवश्यकता है उसी में हम पिछड़े हुए हैं और बाते बहुत बड़ी-बड़ी करने के आदि हैं और हमारे नेताओं कि एक सबसे बड़ी खासियत है कि बोलने में और झूठे वादों में महारत हासिल है यदि विश्व स्तर पर इसकी कोई प्रतियोगिता हो तो गोल्ड मैडल इन्ही को मिलेगा ये पक्का है,शिक्षा का जो प्रतिशत है सो है अपने प्रदेश में जहाँ मैं रहता हूँ गुडवत्ता अत्यंत ख़राब है,डिग्री धारक आपको लाखों मिल जायेंगे पर सही मायने में उस डिग्री के अनुरूप योग्यता वाले कम ही मिलेंगे,हजारों कि संख्या में ऐसे भी मिल सकते हैं जो शायद अपने विषय कि स्पेलिंग भी सही ढंग से न लिख सकें,विषय कि जानकारी तो जाने दीजिये,कारण ये है कि डिग्री कॉलेजेज,इंजीनियरिंग कॉलेजेज बहुतायत खुल गए हैं,खास तौर से डिग्री कालेज ये तो थोक के भाव में खुले हैं,किसी-किसी तहसील में तो बीसियों डिग्री कालेज है पर ये केवल लाभ का व्यवसाय बन कर रह गए हैं,अधिकाँश में तो पढ़ाई नाम मात्र कि होती है और गुडवत्ता का तो भगवान् मालिक है,ये सब संस्थाएं डिग्रीयां बाटने कि संस्था मात्र बन कर रह गयी हैं,हाई स्कूल और इंटर कालेज ज्यादातर जो प्राइवेट हैं उसमे नक़ल कैसे कराया जाए सालभर इसी उधेड़बुन में लगे रहते हैं,शिक्षा के अधिकारियों से जुगत लगाने के फिराक में रहते हैं और इसके लिए एक मोटी रकम भी खर्च करने को तैयार रहते हैं,कुलमिलाकर हमारे राजनीतिक आकाओं कि भी मंशा सही नहीं रहती हैं क्यूंकि यदि देश सही मायने में शिक्षित हो जाएगा तो फिर इन सब जाती-धर्म के दायरे से बाहर आ जाएगा और ये उनके चुनाव के दृष्टि से कत्तई अच्छा नहीं होगा,इन्हे तो हमें इन्ही सब चीजों में भरमा कर वोट कि राजनीत खेलनी हैं और अपना उल्लू सीधा करना हैं कोई न कोई एक बार सत्ता में आएगा कोई दूसरी बार आएगा फिर तो इनके हाथ में टकसाल की मशीन लग जाती हैं और धन की वर्षा होने लगती हैं,ये अपने कई पीढ़ियों का इंतजाम कर लेते हैं और हम-आप वही जाति-धर्म में ही उलझे रहते हैं।यही कारण हैं कि जो दो विषय देश के लिए सबसे महत्वपूर्ण हैं शिक्षा और स्वास्थय उसी में हमारी स्थिति सबसे दयनीय हैं,शिक्षा का तो आप देख ही रहे थे और स्वास्थय की पूरी पोल कोरोना ने खोल दिया,ये ध्रुव सत्य हैं की यदि देश का प्रत्येक नागरिक सही माने में शिक्षित हो जाये और उसके स्वास्थय का मुकम्मल इंतजाम हो तो देश एक स्वस्थ परंपरा में आगे बढ़ेगा,पर ये विषय राजनीतिक आकाओं के लिए महत्वपूर्ण नहीं हैं,यही कारण हैं की देश में बेरोजगारी भी बहुत बड़ गयी हैं और हम हैं तो केवल जाती-धर्म और मुफ्त में क्या-क्या मिल सकता हैं इसी में उलझे रहते हैं,जब की हमे अच्छी और रोजगारपरक शिक्षा,स्वास्थय की बेहतर व्यवस्थ तथा रोजगार के समुचित अवसर के लिए जोरदारी से लड़ना चाहिए,ये मुफ्त का सामन या सुविधा एक अफीम की तरह हैं जिसकी लत लगती हैं तो छूटती नहीं हैं,इससे हमें बचना होगा।
आज इसपर विचार करिये की हम कपड़े से रहन-सहन से तो बहुत ही आधुनिक हो गए हैं,हाथों में एक से एक स्मार्ट फ़ोन आ गए हैं,चमचमाती कारें हैं पर सोच हमारी क्या आधुनिक हुई हैं की आज भी हम जाती-धर्म के नाम पर उलझे हुए हैं ये फलां जाती के हैं ये फलां जाती के हैं,यहाँ हिंदुत्व खतरे में हैं यहाँ मुस्लिम धर्म खतरे में हैं क्या इस सोच से ऊपर उठ पाएंगे यदि नहीं तो हमारी सोच तो कबीलाई ही कहलाएगी,जहाँ केवल एक कबीले के बारे में ही सोचा जाता हैं,फिर हम ५००० ईशा पूर्व सिंधुघाटी की सभयता की सोच से हम अपने को कैसे ऊपर मान सकते हैं,हमसे बेहतर सोच तो उन्ही की थी,हमारे राजनीतिक आका लोग क्यों हमें बड़े-बड़े सब्जबाग दिखते हैं और विश्व गुरु बनने का सपना दिखाते हैं,जब की सोच हमारी बहुत ही निम्न स्तर की हैं,जब हम दुर्दांत अपराधियों को भी जातिगत दृष्टि से देखने लगते हैं और उसकी समीक्षा भी उसी दृष्टि से करने लगते हैं तो फिर हम किस बात के आधुनिक कहलाने के अधिकारी हैं,हमारी दृष्टि से तो कत्तई नहीं हैं।आज समय की मांग हैं देश हित में भी हैं की हम इन सब सोच से ऊपर उठें और इन आकाओं के चालों को उनके मंसूबे को कामयाब न होने दें हम इसपर काम करें की हम सब एक परिवार हैं,रोटी,रोजी,मकान की आवश्यकता सबको हैं,गरीब जो वास्तव में हैं वो सभी जातियों के एक जैसे ही हैं उनकी तकलीफें एक जैसी ही होगी,साथ ही हर गरीब को स्वास्थ्य की उत्तम व्यवस्था चाहिए न की कोरी लफ्फबाजी,आज इस चीज को समझने की आवश्यकता हैं और इसी पर मिलकर लड़ना होगा हर उस व्यक्ति को शिक्षित और स्वस्थ करना होगा जो वास्तव में सबसे कमजोर तबके के हैं और उनकी रोटी रोजगार का भी मुकम्मल इंतजाम करना होगा तभी एक नए भारत का निर्माण संभव हैं अन्यथा तो हम राजनीतिक आकाओं के शिकार हो ही रहे हैं और होते ही रहेंगे।आइए हम सब मिलकर एक नए दिशा में कदम बढ़ाएं और इनके मंसूबों पर पूरी तरह पानी फेर दें।




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