वादा तेरा वादा

मनुष्य के जीवन में वादे का बहुत महत्व है ,बचपन से ही वादों में जीना सीखते हैं ,बच्चों का माँ -बाप से लिया गया वादा की आज ऑफिस से या काम से लौटते समय टॉफ़ी या खिलौना लेकर आने का ,या फिर त्योहारों पर नए कपड़े दिलाने का वादा ,साइकिल से लेकर नए बस्ते तक तरह-तरह के वादे।इन वादों में एक प्यार और अपनत्व का ऐसा अटूट बंधन होता था रिश्ते की इतनी गहराई रहती थी की उन वादों को पूरा करने के लिए माता -पिता हर वो मुमकिन कोशिश करते थे जो वो कर सकते थे।जब वे वादा पूरा कर घर पहुंचते थे तो बच्चों का दौड़ कर आना और जिद करना पापा दो,पापा दो और अपना सामान पाने के बाद जिस तरह से बच्चे खुश होते थे वो पल वो क्षण जिंदगी के खुशियों का अमूल्य धरोवर बन जाते थे,ये अमीर-गरीब सभी परिवारों में कमोबेश होता था ,यह अलग बात थी की अमीरो की मांग कुछ बड़े होते थे जो आसानी से पूरे हो जाते थे ,गरीबों के लिए बहुत ही मेहनत का काम होता था ,लेकिन ये १००% सही है की उनके यहाँ जो अपनत्व ,छोटे से उपहार और  रूखी-सूखी में ही मिल जाता था वह किसी को नसीब नहीं था। यहाँ एक बात अमीर -गरीब सभी परिवार पर लागू होता था की वो वादे को पूरा करने की पूरी ईमानदारी से कोशिस करते थे। 



                         इन्ही वादा शब्द को बड़ी मजबूती से हमारे भाग्य नियंता बनने वाले या बन जाने वाले राजनीतिक दलों ने बड़ी मजबूती से पकड़ लिया और इसका अपने तरह से बखूबी इस्तेमाल कर रहें हैं ,उनके इसी वादों के भूलभुलैया में हम सब गोते लगाने  को मजबूर हैं।७३ साल से वादों के मकड़जाल में फंसे हुए हैं ,एक आता है दूसरा जाता है पहला दूसरे के लिए जिन-जिन शब्दों का प्रयोग करता है उसकी हम भी कल्पना नहीं कर सकते ,गिन-गिन कर पहले की वादाखिलाफी बड़े जोर-शोर से बताता है और वादों की फेहरिस्त लम्बी कर लेता है और चीख-चीख कर ढिंढोरा पीटता है की मुझे आने दो मैं सारे वादे न केवल पूरे करूँगा बल्कि आप के सारे आंसू पोछ लूंगा।हमलोग भी इसी मायाजाल में फंस जाते हैं और अपना विश्वास रूपी मत दे बैठते हैं फिर झूठे वादों का पिटारा ५ साल तक ले के ढोने को मजबूर रहते हैं ,यही हमारी नियति बन गयी है। कुछ चीजों पर गौर करने की जरुरत है जैसे की गरीबी ,बेरोजगारी,मॅहगाई इनमे कोई विशेष परिवर्तन आपको ७३ साल बाद भी देखने को नहीं मिलेगा ,आज भी विद्युत की समस्या बनी  रहती है। हमारी सबसे मूलभूत जरुरत शिक्षा और स्वास्थ्य का बुरा हाल है ,कोरोना महामारी ने स्वास्थ्य विभाग की पोल खोल के रख दी ,एक भी वेंटिलेटर जिले में न होना कितनी बड़ी विडंबना है ,हमारे यहाँ पहले से व्यवस्था मुकम्मल करने की आवश्यकता नहीं समझी जाती बल्कि आपदा की इंतजारी की जाती है ,उसके बाद हम तैयारी करते हैं।किसी के लिए आपदा विपदा का कारण बनती हैं तो किसी के लिए धनार्जन का अवसर। इसका एक सबसे बड़ा  कारण यह भी होता है कि किसी भी बड़े लोगों का बच्चा सरकारी स्कूलों में नहीं पड़ता ,ठीक उसी प्रकार से कि किसी भी बड़े लोगों के यहाँ बीमार पड़े लोगों का इलाज सरकारी हॉस्पिटल में नहीं होता है ,फिर वो क्यों सोचें या उन्हें क्या पता ,सही कहा गया है कि "जाके पांव न फटी बिवाई, वो क्या जाने पीर पराई" 'गरीब तो मज़बूरी में दोनों जगह जाता है क्यूंकि उसके पास यही एक मात्र विकल्प है।आज क्यों नहीं अनिवार्य कर दिया जाता कि सबके बच्चे सरकारी स्कूल में पढ़ेंगे और पहले सरकारी हॉस्पिटल में इलाज कराएंगे ,देखिये ६०% व्यवस्था सुधर जाएगी ,पर व्यवहारिकता में ऐसा हो ही नहीं सकता ,वादा तो हजार ले लीजिये पर पूरा करने की कल्पना मत करिये। पूरा हो जायेगा तो आप खुशहाल हो जायेंगे तो फिर गरीबी किसकी भगाएंगे ,फिर नए-नए जुमले कहाँ से गढ़ कर लाएंगे ,क्यूंकि मकसद तो है इसी तरह अपना उद्देश्य पूरा करने का जो हो रहा है। दोष तो आम आदमी का है की वो बेचारों से वादा पूरा करने की आश लगाए बैठे रहते हैं ,वो कड़ी मेहनत तो करते ही हैं ,ये अलग बात है की स्थिति किसी और की सुधर जाती है ,इसमे उनका क्या दोष ,किसी की सुधरती ही तो है। 

                         यदि अभी भी हम इनकी सच्चाई को नहीं समझे तो ऐसे ही वादों में जीते रहेंगे। आज भी बहुत पुराण गण एकदम फिट बैठता है -- 

"वादा तेरा वादा वादे पे तेरे मारा गया गरीब ये सीधा-सादा ,

ये तेरे लटके-झटके तेरी ये दिलकश बातें तेरी बातें ही बातें 

इन्ही पर मारा गया ये गरीब सीधा-सदा ,वादा तेरा वादा".  .


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