मुट्ठी बांधना सीखिए - समझाविश बाबू - हिंदी ब्लॉग

आज हमें सोचना होगा की की हमेशा हमारी हाथ  जोड़ने की संस्कृति ही क्यों रही है,यद्यपि ये सबसे खूबसूरत संस्कृति रही है और इसके लिए अपने देश की अलग पहचान भी रहा  है,इसीलिए भारत देश एक सहिषुण देश माना जाता रहा है।मैं भी क्या सभी मानते हैं कि ये बहुत ही उम्दा सभ्यता और संस्कृति का उदाहरण है,जो शायद ही विश्व के किसी अन्य राष्ट्र में देखने को मिलता है। लेकिन ये भी तो सोचना होगा कब तक ये बहुत ही उत्तम रहता है,हमारी इसी सहनशीलता के दुष्परिणाम भी हुए हैं कि सल्तनत काल से लेकर अंग्रेजों के गुलामी भरे काल में हमने बहुत ही अमानवीय और पशुता भरी यातना सही है,और ७०० साल तक लगभग गुलामी कि दासता में जकड़े रहे हैं।हम उस काल में भी अपनी सहनशीलता के कारण बहुत जुल्म सहे हैं,मुट्ठी भर लोग आकर हमें गुलाम बना गए हम केवल एक-दूसरे का मुँह देखते रह गए,इसका एक कारण हमें ये समझ में आता है कि हम कर्म से ज्यादा भाग्य पर विश्वास करते हैं,हमारी सोच यहाँ पर आकर टिक जाती है कि जो कुछ हो रहा है हमारा इसमें वश नहीं है,सब उसकी मर्जी है,यही कारण है कि कोई व्यक्ति यदि जरा सा चमत्कार दिखा देता है,या आडम्बर फैला देता है यो हम भ्रमित होकर उसी में भगवान् का रूप देखने लगते हैं हम सत्य जानने का रंच मात्र प्रयास नहीं करते और अंध भक्त कि तरह कर्म को छोड़ कर किसी चमत्कार कि प्रत्याषा में उसी के पीछे लग जाते हैं वो जैसा-जैसा कहता है हम वैसा-वैसा करने लगते हैं,क्यूंकि हमें लगने लगता है कि कोई चमत्कार के द्वारा हम भी सुख सुविधा संपन्न हो जायेंगे।दुःख तो तब होता है जब उसका घिनौना सच सामने आता है,तब भी हम हाथ  जोड़े ही खड़े रहते हैं मुट्ठी बांधने का प्रयास नहीं करते हैं,मुट्ठी बांधने का प्रयास का मतलब  हिंसा कदापि नहीं है लेकिन सशक्त विरोध का तो है ही,यदि ये भी आप नहीं कर सकते तो एक के बाद एक पैदा होते रहेंगे और हम और आप केवल और केवल छले जाते  रहेंगे।



                               इस चीज को आज के परिवेश के रूप में भी देखना होगा,आज जो हमारा हक़ है या शासन ने जो चीज मुहैया कराई है वो भी हमें सही तरीके से नहीं मिल पता है,हम ऑफिसों के चक्कर लगाते रहते हैं और गिड़गिड़ाते रहते हैं कि साहेब,सरकार हमारा काम कर दीजिये और उन साहेब के चेहरे पर जरा भी शिकन नहीं आता है,हम हाथ  जोड़े केवल माई-बाप कि गुहार ही लगाते रहते हैं,ऐसे जगह भी यदि आप में मुट्ठी बांधने का साहस नहीं है तो आप को घर बैठ जाना चाहिए और यही विश्वास करते रहना चाहिए कि यदि भगवान् चाहेगा तो घर पर बैठ कर ही मिल जाएगा,क्यां यहाँ पर आप अहिंसावादी तरीके से ही सही अपनी मुट्ठी बांध कर सशक्त विरोध नहीं कर सकते हैं जो व्यक्ति इसी जिम्मेदारी के लिए बैठाया गया है उसकी बार्गेनिंग करने कि जुर्रत कैसे हो रही है,मात्र यही कारण है कि हम बस हाथ जोड़ना,गिड़गिड़ाना ही सीखे हैं,जहाँ जरुरत है वहां खूब हाथ जोड़िये लेकिन जो इसका बिलकुल ही पात्र नहीं है है वहां इसका प्रयोग क्या करना?हम आपस में खूब लड़ जायेंगे जहाँ जरुरत नहीं है वहां जाति-धर्म बिरादरी को लेकर हाथ न जोड़कर मुट्ठी तो क्या घूंसा बांधकर खड़े हो जाएंगे,जबकि यहाँ हाथ जोड़ने कि जरुरत है और जहाँ मुट्ठी कि जरुरत है वहां आपस में बिखर कर हाथ जोड़े खड़े रहते हैं,इसका फ़ायदा अगला बखूबी उठाता है।अगला इसी में अपना उल्लू सीधा करके समाज में अपना रसूख बनता है और हम बस वही ढाक के तीन पात कि तरह मिमियाते रहेंगे।

                            हमारे अंदर एक और खतरनाक प्रवित्ति रही है कि हम हमेशा ये सोचते रहते हैं कि मुट्ठी कोई और बांधे हम हाईलाइट न हो हमारी बुराई न हो हमारा नाम आगे न आये।हमारी प्रवित्ति बन गयी है कि क्रांति का बिगुल जलाने वाला किसी और घर में पैदा हो और सबसे अमीर व्यक्ति हमारे यहाँ पैदा हो,यही हमारी जो प्रवित्ति है इसका फ़ायदा ही उठा कर भ्रष्टाचारी,रिश्वतखोर,चाहे वो किसी भी वर्ग में हों ऐश कर रहे हैं और हम पिसते जा रहे हैं। हमारे इसी कमजोरी का फ़ायदा उठाकर ही अपने देश में कुछ भी कहने से परहेज नहीं करते चाहे वो अपने देश समाज के  लिए हितकर हो या न हो,पकिस्तान,का भी गुड़गान कर देंगे अपने तिरंगे का भी अपमान कर देंगे,कुछ भी कह देंगे,इसका कारण ये भी है कि हमारी मुट्ठी बांधने कि परंपरा नहीं बन रही है हम हाथ जोड़े ही घूम रहे हैं,इससे हमारा नुकसान पर नुकसान हो रहा है लेकिन हम केवल और केवल सहते जा रहे हैं।आज हम अपने ही अधिकारों  को अपनी सुविधाओं को पाने के लिए संघर्षरत हैं और मौज करने वाले मौज कर रहे हैं।हम केवल एक-दूसरे से केवल यही चर्चा करते रह जाते हैं कि अरे यार फलनवा ऑफिस में कोई सुनी नहीं रहा है,दूसरा भी कहेगा कि हाँ यार अब का किया जाये पैसे का जुगाड़ किया जाये नहीं तो काम नहीं होगा,पर ये नहीं कहेंगे कि चलो सब चलते हैं सही काम है जब तक नहीं होगा उन्ही के सर पर बैठे रहेंगे।क्यूंकि हमारी प्रवित्ति तो काम किसी तरह निकालने कि है चाहे वो तरीका गलत ही क्यों न हो,हम ये सोच लेते हैं कि हमारा काम किसी तरह हो जाये,हमने सारे समाज का ठेका नहीं ले रखा है।

                          हमारी ये प्रवित्ति ही हमको गुलामी जैसे मानसिकता से बाहर  नहीं आने देती और यही कारण है कि स्वतंत्रता के बाद भी हम अपने अधिकारों के लिए संघर्षरत हैं।समय रहते चेतना बहुत आवश्यक है अन्यथा बस ऐसे ही गिड़गिड़ाते रहना होगा,हिंसा कतई मत अपनाइये लेकिन शांतिपूर्ण ढंग से मुट्ठी बांध कर विरोध तो करिये ,मुट्ठी बांधने को विरोध का एक प्रतीक बनाइये ,तभी एक स्वस्थ समाज का निर्माण होगा। 

                                        जय हिन्द-जय समाज ।।     

 

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