ये तेरा - ये मेरा - समझाविश बाबू - हिंदी ब्लॉग

आजकल ये आम चर्चा का विषय हो गया है की ये तेरा वाला ये मेरा वाला।जब हम पड़ते थे तो स्कूल में सहपाठियों के साथ ये खूब चलता था की मेरा वाला अच्छा है तुम्हरा वाला ख़राब है,इस बात को लेकर हमलोगों में खूब बहस होती थी की मेरा सामान अच्छा है की तुम्हरा,फिर चाहे वो पेन हो या बस्ता हो ,टिफिन हो या फिर खिलौना हो।यहाँ तक  की खाने पर भी बहस हो जाती थी,लेकिन इसका सबसे सुखद पहलू रहता था कि हमारी दोस्ती टूटती नहीं थी बल्कि और गाढ़ा हो जाता था,अंत में जिसका सामान अच्छा होता था हमलोग आपस में स्वीकार कर लेते थे कि हाँ कौन सही है,सब कुछ सौहार्दपूर्ण वातावरण में चलता था,इसी प्रकार घर में भाई बहनो के साथ भी तकरार होता था किन्तु फिर पयार भी आपस में और प्रगाण हो जाता था।ये स्कूल का हो चाहे घर का  हो मिठासपूर्ण वाद-विवाद होता था,जो जीवन में एक ऐसी खुशीका रंग भरता था जिसकी छाप जीवन पर्यन्त रहता था,जब भी उसकी याद आती है मन करता है कि फिर से उसी जीवन में लौट जाएँ।आज हम उम्र में बहुत बड़े हो गए हैं किन्तु सोच में बहुत ही संक्रीण हो गए हैं,आज का तेरा-मेरा एक दुश्मनी का रूप लेले रहा है।



                                             आज हम बड़े जरूर हो गए,संसाधन भी ज्यादा जुटा लिए पर सोच हमारी बड़ी नहीं रह गयी,हर जगह अपना स्टेटस,अपना दम्भ और अपनी जीत याद रह रही है,जीतना भी चाहते हैं लेकिन खेल भावना से नहीं बल्कि साम-दाम-दंड भेद किसी तरह से मिले जीत मिलनी चाहिए चाहे समाज हार जाये,किन्तु खुद नहीं हारना है।कहीं भी नजर डालेंगे तो इसके उदाहरण मिलते चले जाएंगे।इसका जिक्र हम शासीकीय नीतियों से करते हैं,जब भी कोई नीति चाहे वह शिक्षा  जगत कि हो,आर्थिक जगत कि हो,या फिर विदेश नीति हो,जब भी कोई नीति बन के सामने आती है तो एक जोरदार बहस चाहे वो टी वी चैनल हो,समाचार पत्र हो या फिर कोई और मंच सब जगह चल निकलता है और ये बताने का पुरजोर प्रयास किया जाता  है कि मेरी वाली नीति सबसे बेहतर है,चलो मान ही लिया जाए कि आप कि सबसे बेहतर है तो फिर आप को जब मौका मिला तो क्या झक मार रहे थे,मारे होते तीर,पूरा देश मुरीद हो जाता,पर नहीं अब बूढी का दरवाजा ज्यादा खुल गया है तब कुंद पड़ा था,ये बात सब पर लागू होता है,एक और प्रॉब्लम सबसे बड़ी होती है कि बनाने वाला भी नहीं मानता कि उसमे कोई कमी है,केवल कारण एक होता है कि नहीं मैंने जो बना दिया वही सबसे बेहतर है इससे बड़ियाँ कुछ हो ही नहीं सकता।ये ही कभी-कभी विकराल समस्या भी ले लेता है फिर भी हम अंड़े ही रहते हैं चाहे कितना भी नुक्सान हो जाये।आजकल सबसे बड़ी समस्या नेताओं के मूछ कि बन गयी है,कभी-कभी ऐसा लगने लगता है कि जैसे गली-मोहल्ले कि लड़ाई हो गयी है,कोई झुकने या बात मानने को तैयार नहीं रहता है।कभी-कभी तो भाषा भी सीमा लांघ देती है।बहुत से लोग तो देश-विदेश कि नीतियों पर ऐसे बात करेंगे कि जैसे उनसे बड़ा विशेषज्ञ कोई हो  ही नहीं सकता चाहे बिना डिग्री के हो पर वो बात ऐसी करेंगे कि अच्छे से अच्छा प्रोफेसर भी माथा पकड़ ले,माथा ही पकड़ेगा क्यों कि उनकी बातें किस पुस्तक कि हैं ये उनके अलावा कोई नहीं बता सकता है,बानी हुई नीतियों के शार्ट फ़ार्म का फुल फ़ार्म भी न जानने वाले भी विशेषज्ञ कि भांति बात करेंगे भले उसका कोई सर-पेअर न हो।इन्ही कि जमात आजकल सबसे ज्यादा है। इनके लिए एक कहावत सबसे फिट बैठती है बाप न मारे मेढ़की बीटा तीरंदाज।

                                      इन सारी कवायदों के बीच जनता ही पिसती है,जब पेट्रोल,डीज़ल,गैस अन्य सामने के दाम बढ़ते हैं तो हर विपक्ष खूब हाय-तोबा मचाता है,ये अवश्य  है कि जब वो सत्ता में आ जाता है तो तमाम तर्क गढ़ देता है कि ये उसके हाथ में नहीं है,यदि नहीं तो फिर पहले क्यों हाय-तोबा।लता तो बस लुभावने वादों या फिर गहरे ज्ञान कि बातो में उलझी रहती है,कुछ हद तक हम भी जिम्मेदार हैं क्यूंकि हम भी ज़ात,धर्म,बिरादरीवाद में बँट जाते हैं और मूल समस्या से भटक जाते हैं,ये ही कारण है कि आजादी के ७४ वर्षों बाद भी जब राजनीतिक पार्टियां चुनाव के समय टिकट बांटती है तब उस क्षेत्र कि जाती-और धर्म के अनुसार वहां कि आबादी का आकलन करते हैं,ये हमारे देश के लिए दुर्भाग्य नहीं है तो और क्या है,हम प्रगतिशील कहलाने के अधिकारी नहीं हैं।आज के युवा वर्ग को चाहिए इस प्रथा को तोड़ें और जो सच्चे बुद्धिजीवी हैं वो इसमें उनकी मदद करें तभी एक खुबशुरत हिन्दुस्तान का निर्माण हो पायेगा,हम योग्य का चयन जिसदिन करना शुरू कर देंगे और जाती-धर्म को पीछे छोड़ देंगे उसी दिन इसपर राजनीतिक रोटी सेकने वालो को भरपूर तमाचा मिल जाएगा,ये ही हमारा सच्चा जवाब भी होगा ।।     

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