दौड़म-दौड़ भागम-भाग - समझाविश बाबू - हिंदी ब्लॉग
आज पुरानी जिंदगी को याद करता हूँ तो दिल,मन,आत्मा सभी एक खुशनुमा अहसास से भर जाता है,वो संयुक्त परिवार, दादी, बाबा, चाचा,चाची,अम्मा,बाबूजी से भरापूरा परिवार,एक साथ जमीन पर पंगत में बैठ कर खाना खाना ,बड़ो का भरपूर दिल से आदर होता था,जो भी पहली रोटी आती थी वो सबसे पहले बाबा को ही जाता था,बाबा के कहने के बावजूद की बेटा तुम लेलो लेकिन मजाल है जो लेलें,डर से नहीं आदर से,डर तो बहुत लगता भी था लेकिन वो डर जो बाबा ने पैदा किया था वो अनुशासन के लिए था न की भय के लिए।उनकी कड़क आवाज का जो जलजला था वो आज किसी का नहीं है,एक तरह से वो हमारे घर के डी एम थे,बस अंतर ये था की घर को बाँध कर केवल हनक से ही नहीं रखते थे बल्कि प्यार भी अटूट करते थे,जरा सा मेरे बीमार पड़ने पर उनकी जो बेचैनी बढ़जाती थी,भले प्रगट नहीं करते थे पर समझ में आ जाता था,प्रगट न करने के पीछे भी उनकी मंशा ये रहती थी की और सभी सदस्य न घबड़ायें,सबको हिम्मत देने क काम करते थे।घर से बाहर कहीं भी जाने पर ये शकून रहता था की घर में बाबा के रहते कोई दिक्कत नहीं आ सकती है,बाहर चिंतामुक्त होकर अपना काम कर सकते थे।
दो-चार दिन घर से बाहर रहने पर घर की बहुत याद आती थी,घर पहुंचते ही लगता था जैसे की मंदिर में पुनः लौट आये हैं,आते ही बाबा,दादी का पैर छूटे ही जो आशीर्वाद दिल से मिलता था ''खुश रहो बेटा खूब तरक्की करो'',''जुग-जुग जियो मेरे लाल'',''हमार बच्चा कलेक्टर बन जाये'',जो भी आशीर्वाद देते थे तो दिल से देते थे,पैर भी जो छूवा जाता था वो भी झुक कर पंजा छूवा जाता था।आजकल की तरह नहीं कि पहले तो पैर छुएंगे नहीं क्यूंकि शर्म महशूस होगी और यदि छुएंगे भी तो बमुश्किल हाथ घुटने तक ही जायेगा क्यूंकि आदर भाव तो दिल से आजकल कम ही होता है।इतने बड़े परिवार में भी जो आत्मीयता और लगाव एक-दूसरे से रहता था वो आज नाभिकीय परिवार में भी देखने को नहीं मिलता था।एक सदस्य के बीमार होने से पूरा घर ही चिंतित हो जाता था,बेशक डाक्टर से दवा तब भी लेना पड़ता था,किन्तु जो बड़े-बुजर्गों का स्नेहमई स्पर्श सर पर महशूस होता था,आधी बीमारी तो अपने आप भाग जाती थी।दवा के साथ ये अमृत का काम करता था,ये एक ऐसी ताकत थी कि बड़ी-से बड़ी बीमारी का सामना भी हंस के कर लेते थे,और आजकल तो सब यंत्रवत हो गया है आजकल तो पति पत्नी को और पत्नी पति को बीमार पड़ने पर बस बता देगी कि हाय जानू हाय बेबी डाक्टर से दवा लेलेना,टेक केयर।बस हो गया अपनापन।यदि सक्षम हैं और माता-पिता साथ में बदकिस्मती से हैं तो ये सब दवा-दारु देखभाल की जिम्मेदारी नौकरों पर होती है।रिश्ते कागज के नोटों की तरह हो गए हैं,जिस तरह नोटों की कीमत होती है उसी तरह उन माँ-बाप की ज्यादा इज्जत होती है जिनके बैंक बैलेंस और सम्पति ज्यादा होती है,और जो अपनी जमा-पूंजी पालन पोषण में ही लुटा देते हैं और अपने लिए भी कुछ बचा नहीं पाते हैं उनकी कीमत बंद हुए ५००-१००० के नोटों की तरह हो जाती है रहते तो हैं पर चलते नहीं हैं।
पहले के समय में यदि बेटा-बेटी घर से बाहर रहते थे तो माँ-बाप को उनके और बेटा-बेटी को माँ-बाप के पत्र का इन्तजार रहता था,जब डाकिये के आने का समय होता था तो माँ पहले से घर की देहरी पर आकर बैठ जाती थी और डाकिया का इन्तजार करती थी,यदि डाकिया आकर दरवाजे से आगे बढ़ता था तो बरबस माँ पूछ ही लेती थी की चिट्ठी हमारी नहीं है क्या,न सुनने के बाद माँ मायुश हो जाती थी,और जिसदिन चिट्ठी मिल जाती थी उसदिन तो माँ को अमृत मिल जाता था और पत्र को बार-बार पड़ती थी आँखे नाम करती थी और पत्र को कीमती सामान की तरह संजो कर रखती थी,यही हाल दूसरी तरफ भी होता था।पत्र केवल पढ़ा ही नहीं जाता था बल्कि वो अंतर्मन तक को पिघला जाता था।आज तो एस एम् एस,व्हाट्सप का जमाना है,बमुश्किल दो तीन वाक्य से ही पूरा काम चल जाता है।
पहले न तो इतने वाहन थे और न ही इतनी भीड़,न ही इतने अत्याधुनिक संसाधन,पर प्रेम और सलीका बहुत था।साधन मिलना और नए-नए वाहन उपलब्ध होना बहुत अच्छी बात है प्रगति होनी ही चाहिए,पर ये समझ में नहीं आता की इतनी तेज गाड़ी लोग सहर के बाहर तो जाने दीजिये भीतर भी चलाते हैं,समझ में नहीं आता की इतनी जल्दी क्यों रहती है लगता है की यदि पांच मिनट अधिक टाइम लग जायेगा तो पहाड़ टूट जायेगा,रॉंग साइड से इतनी तेज बाइक या कार निकालेंगे की सही चलने वाले की जान हलक में आ जाये,किन्तु उनको फर्क नहीं पड़ता,हाईवे पे तो ऐसे सरपट भागेंगे की यदि बस चलता तो गाड़ियों के ऊपर से निकल जाते,गंतव्य पर पहुंचने के बाद ऐसी डींगे मारेंगे की मैं तो चार ही घंटे में ३०० किलोमीटर की सफर पूरी कर दिया लेकिन ये नहीं जानते की अपनी,अपने साथ चलने वालों व रास्ते पर चल रहे अन्य वाहन की जिंदगी दांव पर लगाए रहते हैं,ऐसे लोग अपनी जान हथेली पर लिए घूमते रहते हैं,कोई ये नहीं सोचता की जिंदगी कितनी अनमोल है और कितने मुश्किल से मिलती है,खास तौर से जो नए लड़के रहते हैं पता नहीं किसको दिखाना रहता है,एक और सबसे बड़ी बात होती की पता नहीं माँ-बाप कैसे नाबालिग बच्चों को भी बेधड़क बाइक दे देते हैं इसमें कौन सी वाहवाही रहती है ये वो ही बेहतर जानते हैं। मोटरसाइकिल पर तो ऐसे करतब दिखते हुए निकलते हैं की उस समय के सबसे बड़े स्टंट हीरो वहीँ हैं।ये नहीं जानते की यदि ईश्वर न चाहे कहीं एक्सीडेंट हो गया तो स्वयं की जो दुर्गति होगी वो तो होगी ही माँ-बाप को कितनी परेशानी होगी।इतनी तेजी अपनी पढ़ाई और स्किल डेवलपमेंट में लगाओ तो बेहतर परिणाम आएंगे।हर ओर भागम-भाग है सब दौड़े जा रहे हैं कोई धीमे चलने को तैयार नहीं है दांये-बांये जिधर भी गाड़ी घुसाने की जगह भर मिल जाये घुस जाएगी और बचने की जिम्मेदारी दूसरे पर रहेगी।लाल सिग्नल पर गाड़ियां जब खड़ी होती हैं तो उसमे भी कुछ महाशय निकल जाने में अपनी बहादुरी समझते हैं,खास तौर से रेलवे फाटक पर ये नजारा खूब देखने को मिलता है,ट्रेन आ रही है बिलकुल पास आ गयी है फिर भी मोटरसाइकिल लिए दौड़ पड़ेंगे,क्रासिंग बंद होने पर किस तरह झुक कर गाड़ियां निकालते हैं पुरे योगाचार्य लगते हैं।मात्र पांच-सात मिनट भी रुकना गंवारा नहीं है,फाटक के इधर और उधर दोनों तरफ न दाएं न बाएं हर तरफ गाड़ी घुसेड़ देंगे,जिसका नतीजा फाटक खुलने के बाद दिखाई देता है। घंटो जाम हो जाता है जो आप जल्दी मचा के निकलना चाहते हैं वो आप के अलावा और सब के लिए बड़ी मुसीबत बन जाती है।ज्यादातर जाम के कारण हम खुद ही होते हैं,जरा सा किसी कारण जाम लगा नहीं की हम हर तरफ गाड़ियां घुसेड़ लेते है,अब चाहे जैसे निकले।शहर में तो हद तब हो जाती है जब पैदल चलने वालों के लिए बनाया गए फुटपाथ पर भी दोपहिया वाहन जल्दी निकलने के चक्कर में चढ़ा लेते हैं।बचने की जिम्मेदारी तो उसकी है जो पैदल चल रहा है,आगे निकलने की होड़ ऐसी भागा-भागी की लगता है पुरे संसार का काम इन्ही से रुका है यदि दो मिनट भी ज्यादा लग जायेगा तो पूरा काम ठप्प हो जायेगा।सबसे ज्यादा तो अजीब सनकपना तब लगता है जब बड़े पुल पर पांच-सात लड़के आधुनिक बाइक लिए खतरनाक स्टंट दिखाते हैं,उनमे उनको बड़ा मजा भी आता है भले वो उनके या किसी के लिए जानलेवा ही क्यों न बन जाए।कई बार तो ऐसा लगता है की रेलवे क्रासिंग बंद होने पर कहीं बाइक या कार ऊपर से उड़ा के न निकाल दें।इतना भागम-भाग रहता है।इसके अलावा कई-कई बाइक पर तो लगता है की कैसे लोग बैठे हैं पूरा कुनबा ही सवार होता है,इसी तरह आप को कई ऑटो भी मिल जायेंगे।
मेरे समझ में आज तक ये नहीं आया की इतना भागम-भाग क्यों है,एक तरफ बेरोजगारी बढ़ रही है तो फिर इतनी जल्दी किस चीज के लिए रहती है।चलिए मान भी लिया जाये की आप को पहुंचने की बहुत जल्दी है तो फिर समय की मार्जिन लेकर निकलिये,अपना और दूसरों का जीवन क्यों खतरे में डाल रहे हैं,जीवन बड़े मुश्किल से मिलती है,आजकल दुर्घटनाओं की बाढ़ आ गयी है,इसमें किसी न किसी की लापरवाही झलकती है।क्यों इतनी तेजी है जीवन के अंत के बाद एक ही गति से सभी जाते हैं प्राण निकलने के बाद कोई रेस नहीं रह जाता है।फिर काँहे की जल्दी,ईश्वर ने आप को इतना खूबशूरत शरीर दिया है,फिर अपने किसी अंग को दुर्घटना के भेंट क्यों चढ़ाते हैं,जल्दी वहां कीजिये जहाँ जरुरत हो,सुरक्षित चलिए सुरक्षित रहिये,जो आप को खुशियां मिली है उसको दुर्घटना के भेंट मत चढ़ाइये।जीवन न मिलेगा दुबारा इसे संजो के रखिये मेरे यारा।



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