हाँ मैं डरपोक हूँ - समझाविश बाबू ( हिंदी ब्लॉग)
मैं जब अपने बीते जीवन के विषय में एकांत में बैठ कर सोचता हूँ तब मुझे लगता है कि मैं डरपोक हूँ,लगता क्या हूँ हीं डरपोक,इतने लम्बे जीवन का अनुभव तो मुझे यही साबित करता है और मेरी अंतरात्मा चीख-चीख कर चिल्लाती है कि मैं डरपोक हूँ।यहाँ मैं जो भी बात कह रहा हूँ वो अपने के लिए ही कह रहा हूँ और किसी भी दूसरे के लिए नहीं क्यूंकि और सब तो डरपोक नहीं हैं,सब साहसी हैं,मैं ही नहीं बन पाया जिसका मुझे पश्चाताप और मलाल दोनों है,इसी लिए अपनी इस दुर्बलता और नपुंसकता को सबके सामने उजागर करके कुछ मन हल्का करना चाहता हूँ,हांलाकि मुझे अंदर से अहसास है कि ये केवल मन को झूठमूठ का समझाने का प्रयास है क्यूंकि अपने जीवन में जो हर जगह मैंने अपने डरपोकपने का उदाहरण दिया है,वो मेरे लिखने से मेरे अपराध को कम नहीं कर देगा।हाँ ये अवश्य है कि बचपन में मैं ऐसा नहीं था,उस समय हमारे अंदर कुछ साहस जरूर था।
जब भी किसी दोस्त के साथ कोई बुरा करना चाहता था तो मैं उसके साथ जरूर खड़ा रहता था,यदि कोई दोस्त को बेवजह बिना उसकी गलती के पीट रहा होता था तो भी दोस्त का साथ देने का प्रयास करता था भले मैं भी पिट जाऊ,हाँ ये अवश्य है कि घर पर माँ,बाबू को पता लगता था तो जम के डांट पड़ती थी,कि तुमसे क्या मतलब था बहुत हीरोगिरी आ गयी है,गुंडा बनना है क्या?पढ़ाई-लिखाई छोड़ कर दादा बन जाओ घर से निकाल देंगे घूमते रहना,दो रोटी नहीं कमा पाओगे,वहीँ से मन में द्वन्द शुरू हो जाता था कि मैंने कुछ गलत कर दिया है,वहीँ से मन में ये भावना भी आने लगी कि जब तक अपने ऊपर मुसीबत न आये दूसरे के लिए नहीं भिड़ना चाहिए और धीरे-धीरे मेरे अंदर ये प्रवित्ति गहरे से घर करने लगी।इसका नतीजा ये हुआ की एकदिन अपने जवानी के दिनों में मैं अपने घर के चौराहे पर खड़ा था,वहां देखा कि राशन कि दुकान पर एक लम्बी लाइन राशन लेने वालों कि लगी थी तभी मेरे मोहल्ले का एक व्यक्ति जिसकी पहचान मोहल्ले में दादा के रूप में थी और आ कर लाइन के सबसे आगे खड़ा हो गया,जिस पर एक व्यक्ति ने कड़ा विरोध किया बात बड़ी और दादा उसे बुरी तरह पीटने लगा,मोहल्ले के कुछ लोग भी हाट साफ़ करने लगे क्यूंकि वो दूसरे मोहल्ले का था,मैं खड़ा होकर तमाशा देखता रहा,जानते हुए भी की गलत हो रहा है मैं चुपचाप खड़ा रहा हाँ मन ही मन शेरपने की बात स्वयं से करता रहा की अरे मैं बोल नहीं रहा हूँ नहीं तो मैं एक-एक को ठीक कर देता,ये सब साले हरमजदगी कर रहे हैं,लेकिन वास्तव में अंदर से भीगी बिल्ली बना हुआ था,ये मेरी तथाकथित मर्दानगी का एक जीता-जागता उदहारण था।इस घटना के बाद जब मेरी अपने दोस्तों से मुलाक़ात हुई तो इस घटना का जिक्र सभी कर रहे थे वहां पर मैं अपनी नपुंसकता को छुपा गया और ये कहकर काम चलाया की अरे मैं तो देर में पहुंचा था तबतक सब हो चुका था नहीं तो दादा को मैं बताता,मेरी बाते सुनकर मेरे दोस्त कुटिल मुस्कान बिखरने लगे जो मुझे अंदर तक हिला के रख दिया पर हिम्मत नहीं जगा सका।ऐसे ही अक्सर कुछ न कुछ घटना घटती थी जहाँ चुपचाप खड़ा रहना नपुंसकता की निशानी थी पर मैं तो चुपचाप ही खड़ा रहता था।मैं जब नौकरी में आया तब भी यही हाल रहा,कोई दबंग व्यक्ति ऑफिस में दबंगई दिखा कर चला जाता था और मैं जब तक वो रहता था तब तक तो शांत बेवकूफों की तरह खड़ा रहता था और जब चला जाता था तब दूसरे पर दोष मढ़ने का काम करता था,अपनी कमी छुपाने के लिए ऐसा करता था और तो और जाने के बाद खूब चिल्लाता भी था की तुम लोग कुछ नहीं बोले थोड़ा भी बोलते तो मैं तो तैयार बैठा था उसे कत्तई नहीं छोड़ता बहुत मारता उसको यहाँ से सही सलामत जाने नहीं देता,बस इन्ही सब ऊलजलूल हरकतों से अपने को खुश करने की कोशिस करता,जब की मेरी अंतरात्मा अच्छे से जानती थी की मैं ढकोसला कर रहा हूँ।एक दिन बीच सड़क पर एक शोहदा एक लड़की को छेड़ रहा था दुर्भाग्य से मैं भी वहीँ था,लेकिन अपने चिरपरचित अंदाज में मौन बन कर खड़ा था,थोड़ी देर में पुलिस आ गयी और वो शोहदा भाग गया,मैं बस अपना दार्शनिक विचार प्रगट करता रहा कि पुलिस कुछ देखती नहीं,टाइम से आती नहीं,अपराध बहुत ही बढ़ गया है,बहु-बेटी सुरक्षित नहीं हैं,कभी मैं ये नहीं सोच पाया कि मेरी भी जिम्मेदारी है,कहाँ-कहाँ पुलिस रहेगी,केवल पुलिस पर ही दोष मड़कर मैं अपने को संतुष्ट कर लेता था।
जब कभी चुनाव आता था तो अक्सर देखने को मिल जाता था कि जो माफिया टाइप के व्यक्ति चुनाव में खड़े होते थे,किसी न किसी को अपने फ्री स्टाइल में धमका रहे होते हैं,कभी मैं भी वहां रहता था लेकिन मेरी भी घिग्गी बंधी रहती थी,ऐसा नजर छुपाये खड़ा रहता कि कहीं नजर न मिल जाये और वो दबंग इसी बात पर नाराज हो जाये कि क्यों बे मुझे क्यों घूर रहा है,तेरे भी गर्मी छड़ी है क्या,इसी डर से नजर झुकाये खड़ा रहता था और उसके चले जाने के बाद बस मैं पुराने अंदाज में भीड़ कि गलती,शासन-प्रशासन कि गलती निकलता रहता था।यही कारण था कि जब मैं जंजीर,दीवार,सिंघम,इंकलाब,दबंग जैसी पिक्चर देखता था तो मन ही मन बहुत प्रसन्न होता था लगता था कि मैं ही हीरो हूँ और दे दनादन सबको पीट रहा हूँ,जो काम मैं असल जीवन में नहीं कर पाता था उसे इस तरह से करके मन ही मन वीर बन जाता था,और सोचता था कि काश कोई असल में इस तरह का हीरो आ जाये,क्यूंकि ये सत्यता है कि ऐसे काम मैं खुद नहीं दूसरे से करने कि अपेक्षा रखता था,ये अलग बात है कि लाभ वाले काम चाहता था कि सब मेरे पास आ जाये।कई बार ऐसी घटना घटित होती थी कि मेरे सामने ही कर्मचारी-अधिकारी रिश्वत ले रहे होते पर मैं मूक दर्शक कि तरह रहता था,सोच यही थी कि मुझसे क्या मतलब,कौन मेरा काम है,दूसरे के फटे में अपना टांग क्यूँ फंसाऊं?चुपचाप वहां से निकल लेता था,और जब दोस्तों के साथ बैठता था तो खूब भाषण देता था,कि आजकल बिना रिश्वत के काम नहीं चलता,मेरे सामने ही फलां रिश्वत ले रहा था,लूट मची हुई है,कोई कुछ नहीं कर रहा है,यही सब कहकर अपनी भड़ास निकाल लेता था और मन का बोझ हल्का कर लेता था,क्यूंकि वास्विकता में तो कुछ कर नहीं पाटा था तो यही एक काम कर देता था,मुझसे अच्छा तर्क अपनी गलतियों को छुपाने का कोई नहीं दे सकता था,यही सिख भी पाया था और तो मेरे बस में कुछ था नहीं।अपने आस-पास घाट रहे अनैतिक कार्यों का चश्मदीद बनकर मौन रहना मेरी प्रवित्ति हो गयी है,और खड़े होकर केवल खीसे निपोरना मेरी आदत बन गयी है।
मुझे इस बात कि ख़ुशी है कि मैं ही डरपोक हूँ,नहीं तो अनर्थ हो जाता,और सब साहसी हैं,हर बुरी घटना का विरोध करते हैं और डटकर बुराइयों का सामना करते हैं,जिसके कारण समाज में सब कुछ अच्छा ही अच्छा हो रहा है,जहाँ मेरा योगदान शून्य है।मैं वास्तव में दुखी हूँ कि मैं औरो कि तरह नहीं बन पाया और कमजोर नपुंसक ही बना रहा,प्रार्थना कर रहा हूँ ईश्वर से आप जैसा हिम्मती हमें भी बनाये जिससे मैं भी आप जैसा शेर कि तरह दहाड़ संकू।



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