कहाँ तक जाएगी ये राजनीति ? - समझाविश बाबू [SAMJHAVISH BABU] - HINDI BLOG
राजनीति के विषय पर जब कोई बात करना होता है तो आज के समय में राजनीति का नाम लेने पर ही लोगों के मन में इसके लिए अच्छे विचार नहीं आते ,एक अच्छे मकसद के किये गढ़ा गया ये शब्द आज अपनी प्रासंगिकता क्यों खोता जा रहा है ? क्यों इस शब्द के प्रति लोगों के मन में श्रद्धा की जगह घृणा फ़ैल रही है ?
राजनीति का शाब्दिक अर्थ है की ,जो राज्य के हित के लिए सबसे अच्छी नीति अपनायी जाये वही सच्चे माने में राजनीति है ,एक और अच्छे राज्य और तटस्थ समाज की तलाश तथा एक अच्छे और स्वस्थ समाज ,उन्नत समाज और विकसित समाज के निर्माण का प्रयास ही राजनीति है। समाज में विभिन्न प्रकार के लोग रहते हैं उनमे सामंजस्य स्थापित का उनकी एकता स्थापित कर उन्हे विकसित करना ही राजनीति है। रामायण से लेकर महाभारत काल तक इसकी झलक देखने को मिलती है।
राजनीति का जो सही और सुन्दर उद्देश्य है वो सुन्दर समाज ,सद्भावपूर्ण समाज ,आधुनिक समाज बनाना है और इसके अगुआ अर्थार्त सत्ताधीश इसके लिए अपने या अपने दल के निजी स्वार्थों और हितों का परित्याग करते हैं ,और जनता के हितो को सर्वोपरि मानते हुए कार्य करते हैं। इसके लिए निस्वार्थ रूप से ,सच्चे मन से सत्य के सिद्धांत को अपनाते हुए कार्य करते हैं। पर वर्तमान समय में यदि परिभाषित किया जाये तो ये कहने के लिए विवश होना पड़ेगा की ''छल,कपट,घृणा,स्वार्थ,द्वेष,जो भी अपनाना पड़े अपनाते हुए सत्ता की प्राप्ति ही राजनीति है ,इसके लिए जितना बड़ा झूठ,फरेब करना पड़े सब चलेगा ,बस उद्देश्य एकही है वह है सत्ता की प्राप्ति।'' आजकल इसके लिए जाति,धर्म और राष्ट्रवाद सबसे बड़ा संसाधन है इसकी पूर्ति के लिए ,और इसे खुलकर इस्तेमाल किया जा रहा है ,कभी एक आता है कभी दूसरा ,सभी अपना स्वार्थ सिद्ध करने में जुटे रहते हैं ,इसका उन्हे परिणाम भी मिलता है एक बार आ जाने पर उनका और उनके लोगों का विकास जरूर द्रुत गति से होता है। कुछ तो सत्ता से विमुख होने के बाद सुसुप्ता अवस्था में चले जाते हैं कभी -कभार उनका कोई व्यक्तव्य सुनने को मिल जाता है ,अन्यथा चार साल बेसब्री से इन्तजार करते हैं और उसके बाद आगामी चुनाव में तेजी बढ़ जाती है। आज की राजनीति एक ऐसा रूप लेता जा रहा है जहाँ मर्यादाओं की सारी सीमा टूटती जा रही है और सिद्धांतों का तो कब्रगाह बनता जा रहा है ,इसका आप को आये दिन उदाहरण मिल जायेगा ,चैनलों पर हो रहे डिबेट को देख लीजिये ,या फिर रोजमर्रा की खबरें पढ़ लीजिये। सभी अपने को १००%शुद्ध बताते हैं पर वास्तव में परीक्षण में डालडा से भी ख़राब निकलते हैं।जनता तो बस छली गयी है और छली जा रही है और जिस प्रकार का माहौल है लगता है छली ही जाती रहेगी।इनके चयन के लिए कोई योग्यता निर्धारित नहीं की गयी है ,निरक्षर से लेकर माफिया तक इसमें भाग ले सकते हैं। सबसे बड़ी बात ये हैकि चुनाव में खर्च के लिए निर्धारित सीमा से अत्यधिक खर्चा किया जाता है फिर बिना धन के चुनाव कैसे लड़ सकता है ?इसके अलावा यदि कोई करोड़ों रूपये लगाकर चुनाव लड़ेगा तो मौका मिलते ही इसकी प्रतिपूर्ति नहीं चाहेगा,यदि चाहेगा तो फिर कौन सा सिद्धांत अपनाएगा ? ये तो हम सब भली-भांति जानते हैं कोई गूढ़ विषय नहीं है।
वर्षों पहले पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधीजी ने एक बात कही थी जो बहुत ही चर्चा में रहा और आज भी उदाहरण बनता है की सरकार से एक रूपया चलता है तो नीचे मात्र १५ पैसा ही पहुँचता है ,लेकिन आज तक हमें ये भी समझ में आता की जब ये मान लिया गया की १५ पैसा ही पहुँचता है तो ये बात जानना क्या जरुरी नहीं है की अब कितना पहुँचता है ? आखिर ये ८५ पैसा कहाँ जाता है ,यदि जहाँ से चलता है वहां भ्रष्टाचार नहीं होता तो नीचे तक पहुंचने में जो भी धन खाने में लिप्त है उसपर कार्यवाही क्यों नहीं होती ?चाहे एक नहीं सौ को जेल भेजना पड़े तो भेजा जाये ,सख्त से सख्त कार्यवाही की जाये लेकिन इसे रोका तो जाये ? मात्र कह देने से क्या होता है ,आज क्या स्थिति है कोई बता पायेगा क्या एक रूपया पूरा पहुंचने लगा ? यदि नहीं तो फिर क्या किया जा रहा है ? प्रभावित तो आम आदमी ही हो रहा है न ,यही है आज की राजनीती ''अपना काम बनता भाड़ में जाये जनता "।
एक आप को बहुत ही गजब की चीज राजनीति में देखने को मिलेगा ,जब इनके लिए (वेतन बढ़ना ,भत्ता बढ़ना ,निधि वृद्धि ,पेंशन आदि )का बिल पास करना होगा तो दो मिनट में ध्वनिमत से पास हो जायेगा ,लगेगा ही नहीं कौन पक्ष है कौन विपक्ष। इसके अतरिक्त यह भी देखने को मिलेगा की सभी बात करेंगे की अपराधी,माफिया राजनीत से दूर रहें पर केवल कहेंगे जनता को भ्रमित करने के लिए ,इसपर क्यों नहीं सर्वसम्मत से एक बिल बना कर पास कर देते। चलिए कुछ ऐसा कर दें की यदि गंभीर अपराध मसलन ३०२,३०७,३७६ आदि में यदि ऍफ़ आई आर दर्ज है तो वो चुनाव नहीं लड़ पाएंगे जबतक की दोष मुक्त न हो जाएँ। एक और बड़ा दिल सभी राजनीतिक पार्टियां उठाये की जो भी उन्हें कहीं से चंदा मिलता है और जो खर्च करते हैं वो आर टी आई के अंतर्गत आ जाये ,क्यूंकि धन कहीं से आये अल्टीमेटली जनता का ही पैसा है ,यदि न भी हो तो क्या ये जानने का हक़ नहीं है ?
आजकल एक विषय चर्चा का बन रहा है की सरकारी अधिकारीयों और कर्मचारियों की गुणवत्ता परखी जाएँगी ,उसी आधार पर उनके बारे में सोचा जायेगा ,बिलकुल होना चाहिए इसमें एक चीज और जोड़िए उनके भ्रष्टाचार की भी जाँच कराइये जो खरा न उतरे उसे निश्चित ही बाहर का रास्ता दिखाइए ,पर सभी जनप्रतिनिधियों पर भी लागु करिये।
अब हमें आप को जागना होगा कब तक ये हमे कभी किसी नाम पर कभी किसी नाम पर हमें लड़ते रहेंगे और हम लड़ते रहेंगे ,और ये अपने गंदे मकसद में कामयाब होते जाएंगे , हमारा भी कर्त्तव्य है कि अपराधी,माफिया चुनाव में भले खड़े हो जाएँ वो जीते नहीं ,हो सकता है वो अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए कुछ अच्छे काम करते हों पर इसका मतलब ये नहीं है की उन्हे जिताया जाये ,ये प्रण करें की हम ऐसा हरगिज नहीं होने देंगे ,एक मशहूर शायर का ये शेर याद आ रहा है कि ----
" ये दबदबा ये हुकूमत ये नशा-ऐ -दौलत
किरायेदार हैं सब घर बदलते रहते हैं "
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(कुछ पंक्तियाँ मशहूर शायर बेकल उत्साही की)
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सच से भी रस्म ओ राह करती हैं
झूठ को भी गवाह करती हैं
अपने चेहरे को देखती ही नहीं
आईने को स्याह करती हैं
एक घर को सवारने को के लिए
शहर सारा तबाह करती हैं
क़त्ल होता है बेगुनाही का
जब सियासत गुनाह करती हैं ।।



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