विरोध-विरोध-विरोध - समझाविश बाबू
विरोध एक स्वाभाविक प्रक्रिया है ,जो कहीं भी किसी के खिलाफ की जा सकती है,चाहे वह पिता के खिलाफ पुत्र का ही विरोध क्यों न हो या फिर भाई का भाई से हो,एक रिश्तेदार का दूसरे रिश्तेदार से हो,मित्र का मित्र से हो,किसी अधिकारी से जनता का हो ,या फिर किसी जनप्रतिनिधि का विरोध हो या शासन-सत्ता के खिलाफ हो ,उनके द्वारा बनायीं गई नीतियों का हो।यहाँ सब में एक तथ्य कॉमन है की विरोध किसी के प्रति किसी का हो कारण बताना जरुरी है,जब की किसी नीतियों या बनाये गए नियमो का हो तो उसे पड़ना और जानना विशेष रूप से जरुरी है,किन्तु अजीब सी स्थिति उत्पन्न हो रही है भीड़ एकत्रित हो जाता है तमाम लम्बरदार आगे आ जाते हैं और जोर-शोर से ढिंढोरा पीटते हैं की गलत है-गलत है और जब पूछ लिया जाता है की कुछ बताइये क्या नीति बनी है क्या-क्या खामिया है क्या सुधार होना चाहिए तो आय -बाँय-सांय बोलने लगते हैं जिससे ये पता चल जाता है केवल भीड़ का हिस्सा बन गए हैं आगे-आगे इसलिए चल रहे हैं की फोटो बड़ियाँ आ जायेगा और अपने आका के नजर में नंबर बढ़ाने का काम करेगा।आज ज्यादातर इसी तरह का भेड़ चाल होता जा रहा है,इसी लिए ज्यादातर विरोध बेअसर होता जा रहा है।
विरोध तो एक स्वाभाविक प्रक्रिया है जो रामायण और महाभारत काल से लेकर सभी काल में रहा है,स्वतंत्रता आंदोलन भी जो चला वह भी गुलामी के प्रति विरोध ही था,लेकिन फंडा स्पष्ट और संघर्ष निस्वार्थ था,पहले से ही अपना हित साधने का मात्र एक जरिया नहीं था,आज तो हर बात पर हर जगह विरोध एक फैशन बनता जा रहा है,इन विरोधों से समाज का हित हो न हो इसके पीछे जो लोग लगे होते हैं वो अपने छुपे हुए मकसद में कामयाब हो जाते हैं। एक अजीब सी परंपरा बनती जा रही है की जब वो रहें तो हम और जब हम रहें तो वो हर चीज में विरोध करना ही है ,यह देखने का बहुत ज्यादा मतलब नहीं है की विरोध का आधार सही है या गलत है,अब इन दोनों की लड़ाई में जनता ही पिसती है,कन्फ्यूज भी रहती है की कौन सही कह रहा है या कौन गलत,कौन उसका हितैषी है कौन नही,हम भी बटने लगते हैं कुछ इधर कुछ उधर ,और यह नूरा कुश्ती चलती रहती है केवल दोनों तरफ से यही दिखाने की कोशिस होती है की मैं ही आप का सबसे बड़ा शुभचिंतक हूँ ,और इतना दुखी हूँ आप के कष्ट देखकर की आँखों से आँशु आ रहा है और खाना गले के नीचे नहीं उतर रहा है जब की वास्तविकता में क्या-क्या उतर रहा है वही बता सकते हैं।यहाँ वास्तविक लड़ाई तो कुछ होना चाहिए पर लड़ाई हो जाती है लम्बरदारी की,कौन इसका तमगा ले जायेगा।जितने भी बिल पास हो रहे हैं,नियम बन रहे हैं सभी का कमोबेश विरोध हो ही रहा है,यदि मान लिया जाये की ये बिलें जनविरोधी हैं तो फिर सबसे पहले तो इसे जनता के बीच तर्कों और आंकड़ों के सहारे स्पष्ट करना चाहिए और जनता का भी सच्चाई के साथ रायशुमारी लेनी चाहिए फिर यदि लगता है तो बिलकुल शांतिपूर्ण ढंग से इतनी बुलंद आवाज उठाना चाहिए की आप की बात मानने के लिए मजबूर होना पड़े,केवल हल्ला मचाना या रेल रोकना ये सही तरीका नहीं है,यदि आप सही हैं तो आप की बात सुननी पड़ेगी क्यूंकि जनता की आवाज तो सभी को सुननी पड़ेगीजनता-जनार्दन से बड़ी कोई शक्ति नहीं है,बड़े से बड़ी बाधा भी जनता-जनार्दन चाहेगी तो पार कर लेगी।जनता से बड़ी कोई शक्ति नहीं है ये जनता समय-समय पर साबित कर चुकी है।
यूट्यूब खोलिये तो अनेकानेक मत मिल जाएंगे,क्या-क्या आंकड़ों से समझाने का प्रयास किया जाता है,किस-किस विषय पर नहीं बोला जाता है,मौजूदा परिस्थिति का बड़ी गहनता से मूल्याँकन करने का का प्रयास किया जाता है और ऐसा चित्रण पेश करने की कोशिस की जाती है की सुन कर माथा भिन्ना जाता है,मन में विचार आने लगता है की जब इतना बुरा हो रहा है तो फिर मुखर जनविरोध क्यों नहीं हो रहा है,क्यों नहीं इसे जनांदोलन बनाया जा रहा है,फिर तो ये भी लगने लगता है की आप का मकसद पवित्र नहीं है,कोई एक पक्ष में तो कोई दूसरे पक्ष में लामबंद हो रहा है,ये पवित्र मकसद कदापि नहीं हो सकता,चलिए ये मान भी लिया जाये की आप ही १००%सही हो तो फिर एक अंगड़ाई तो दिखनी चाहिए न और वो आम जनता में भी दिखनी चाहिए,यदि सही भी हैं आप और दिख भी नहीं रहा है तो आप असफल हैं आप को घर बैठना चाहिए,क्यूंकि जब आप कोई बदलाव हेतु सार्थक प्रयास करने में सक्षम नहीं हैं तो केवल भाषण देने का कोई मतलब नहीं है।
आप पक्ष-विपक्ष खेलते रहें इससे जनता का कोई भला नहीं होने वाला है,आप उनकी वो आपकी कमिया बताते रहें,आप उनका वो आपका रोना रट रहें,इससे जनता का क्या भला होने वाला है ,आप काला कानून कहें वो सफ़ेद कहें ये दिखावे की कुश्ती चलती रहे आप अपने-अपने नम्बर जोड़ते रहें,जनता का जीरो नम्बर ही रहे क्या फर्क पड़ता है। आप लोग ये खेल खेलते रहें जनता बेबसी से देखती रहे पर याद रखिएगा कहा जाता की उसकी मतलब ऊपर वाले की लाठी में कोई शोर नहीं होता उसी तरह जनता में भी नहीं होता है।
यदि वास्तव में ये नीतियां गलत है जनता के हितो पर कुठाराघात है और ये किसानो को या जनता को लाभ नहीं हानि पहुंचाएगा तो फिर जनता में इसे साक्ष्य और तथ्य सहित उजागर करना चाहिए की हम जो कह रहे हैं वो सही है ,मेरा विरोध समाज के हित में है सभी को इसमे शांतिपूर्ण मगर प्रभावशली भागीदारी करनी पड़ेगी और तबतक करनी पड़ेगी जब तक सफलता न मिल जाये,और ये भी समझाना पड़ेगा की पहले क्यों नहीं किया गया,जो अब ढोल पीटा जा रहा है |
यदि सत्य की लड़ाई सत्यता से लड़ी जाये तो फिर सफलता की प्राप्ति तक जारी रहनी चाहिए और शांतिपूर्ण तरीके से तबतक चलती रहनी चाहिए जबतक बात मान न ली जाये |आज देश का जो माहौल बनता जा रहा है उसमे एक लकीर खींचना तो जरुरी हो गया है,यदि वास्तव में झूठ को सच के चादर में लपेट कर परोसा जा रहा है तो बड़े ही समझदारी से उसे हटाना तो पड़ेगा ही झूठ को नंगा भी करना पड़ेगा,साथ ही सच के जीत को अंजाम तक पहुँचाना भी होगा,इसके लिए आंधी,गर्मी,बरसात नहीं देखना होगा बल्कि सहना होगा।
हंगामा मेरा मकसद नहीं विरोध मेरा स्वर नहीं
पर जहाँ जनता के आशुंओं का होगा सवाल
मकसद भी होगा विरोधी स्वर भी होगा
सफलता भी मिलेगी और जनता भी मुस्कुराएगी।।
जय हिन्द- जय भारत - जय समाज।।



Bahut khoob,
जवाब देंहटाएं