जब याद की बदरी छाती है --- समझाविश बाबू ----

जब भी मुझे मेरा बचपन याद आता है तो मेरी आंखे नम हो जाती है,जब भी मुझे मेरे गुजरे हुए माता-पिता की याद आती है तो आंखे नम हो जाती है,जब भी मेरे जीवन के सुनहरे पल याद आते हैं तो मेरी आंखे नम हो जाती है,जब मेरा बचपन का वो एक इकलौता  मित्र याद आता है जिसके मित्रता में न कोई छल था न कपट न कोई स्वार्थ तो भी आंखे नम हो जाती है,इस नमी में एक बिताये हुए जीवन का एक प्यारा सा अहसास और अजीब सा उल्लास भरा होता है ,और ये एक ऐसी नमी होती है जो बार-बार आये तो भी मन नहीं भरता है। उन पलों को यदि शब्दों में उकेरना चाहूँ तो संभव ही नहीं होगा। वो पल लगता है अब इस जीवन में दुबारा नहीं आएगा,क्यूंकि अब किसी मित्र से मोबाइल से भी संपर्क करना चाहता हूँ तो उधर उसको अहसास रहता है की हम अब उसके किसी काम के नहीं हैं,बड़े मुश्किल से संपर्क भी होता है तो उसकी बातों में कोई अपनापन नहीं रहता और उधर से यही आवाज आती है की यार अभी मैं व्यस्त हूँ तुमसे शाम को बात करता हूँ, मुझे पता है की वो शाम आने वाली नहीं है,यदि हिम्मत कर दुबारा संपर्क करने की कोशिस करता हूँ तो बड़े ही मजे से कहता है की अरे यार सॉरी मुझे याद ही नहीं रहा कॉल नहीं कर पाया,आज जरूर करूँगा,वो आज फिर नहीं आता है।



                                   आज रिश्तो में इतना बनावटीपन क्यों आ गया है,आज सामाजिक रिश्तों को तो छोड़िये अपनों के रिश्तों का ताना-बाना गड़बड़ा गया है सब एक मशीन की तरह चल रहा है जहाँ कोई भाव नहीं है बस मशीन को जबतक ऑइलिंग ग्रीसिंग करते रहोगे चलती रहेगी,उसी प्रकार से रिश्ता होता जा रहा है की जबतक स्वार्थ है टिका हुआ है।रिश्तों की जो तासीर और गर्माहट पहले थी उसमे एक अजीब सा ठंडापन आ  गया है।सामाजिक रिश्तों में भी स्वार्थ और संकुचितता आती जा रही है,लोग एक दूसरे से कटते जा रहे हैं,आदमियत और इंसानियत की जगह स्वार्थ और मक्कारी ने लेना शुरू कर दिया है,आदमी की पहचान उसके आदमियत से नहीं बल्कि उसके रसूख से होने लगी है जिसके जेब में जितना दम वो उतना ही बड़ा आदमी कहलाता है उसपर से अगर पावर का सींग लग गया तो जहाँ पैसे की ताकत से शेर कहलाता है तो पावर के बाद बब्बर शेर कहलाता है।घर -घर  में, पड़ोस -पड़ोस  में ग्राम -ग्राम  में,शहर -शहर में रिश्तों में खटास और स्वार्थता आता जा रहा है। शासक और प्रजा  में आत्मीयता  की जगह केवल  मतलब  घुसने  लगा  है,अपना  काम निकले  जोर  इसी  पर  रह  रहा है,न की इसपर  की प्रजा  कैसे  खुशहाल  हो जाये  या  फिर सामाजिक समरसता  आ जाये । 

                              आइये  इन  रिश्तों को बचाने  की पहल  करें  और पहचानने  की कोशिश करें  रिश्तो को,यही सत्य  है इसे जानना पड़ेगा ,इसी  में जीवन की मिठास है यही जीवन है,रिश्तों  के डोर को पकड़ने  का प्रयास किया  जाये ,पैसा  चला जाये  पर  रिश्ता बचा  रहे, यही  सबसे  बड़ी  धरोहर  है। ये समझने  और समझाने   की चीज है और इसकी  शुरुआत  अपने  घर से होना  चाहिए ,फिर देखना  की पूरा  ताना -बाना ही बदल  जायेगा  हर  पल एक मधुर  अहसास ही नहीं रहेगा  बल्कि दुःख के क्षणों  में भी कोई न कोई आस-पास  रहेगा । 

                              मानव -मानव  के खूं से मत  रंगो  अपने  हाथ  

                              कुछ  सृजन  करो  की सब रहें  एक साथ 

                              तुम्हारी  तकदीर  भी  बदल  जाएगी  

                              फिर देखना  ये गांव  नहीं शहर  नहीं प्रदेश  नहीं    

                              पुरे  देश  की ही तस्वीर  बदल  जाएगी ।।

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