कोई लौटा दे मेरा बचपन - समझाविश बाबू
जब मेरा बचपन शुरू हुआ तो कब हमारा समय बीतता था पता ही नहीं चलता था ,अपने मोहल्ले में मेरे कई दोस्त थे ,सब एक दूसरे से खूब घुले -मिले थे। हम कुछ भी खाते थे तो कभी ख्याल ही नहीं आता था की किसका जूठा कौन खा ले रहा है और न कभी हम यह जानना चाहते थे की किसका धर्म क्या है और किसकी जाति क्या है ,बस मस्त मौला फ़क़ीर की तरह घुमा और खेला करते थे ,एक दुखी होता था तो दूसरा भी ग़मगीन हो जाता था ,बारिश के मौसम में जब स्कूल से घर आते थे और सड़क पर पानी भरा होता था तो पैर से पानी एक दूसरे पर उछालना और भीगना बहुत अच्छा लगता था,भीग कर घर आना माँ का चिंतित होना जल्दी कपड़ा बदलो नहीं तो बीमार पड़ जाओगे ,और तुरंत ही खाना गरम कर देना ,अपने पास बैठा कर खिलाना बहुत अच्छा लगता था ,वो स्नेह और दुलार जिंदगी की ऐसी धरोहर बन गयी है कि आज मेरे माता पिता भले ही नहीं हैं ,लेकिन जब कभी बहुत दुखी होता हूँ तो वही मधुर यादे सहारा बनती हैं ,हाँ ये जरूर है कि आंखे बरबस नम हो जाती है और मन में एक शब्द गुजने लगता है कि माँ तुम कहाँ चली गयी।
माँ-बाबूजी कि डाट कभी पिटाई हो या फिर गुरुजी कि सबमे एक अपनापन और भलाई छुपा होता था,किसी दोस्त के घर जाता था तो उसकी माँ भी वही स्नेह देतीं थी जो अपने पुत्र को देती थीं ,जब कभी बीमार पड़ता था तो माँ-बाबूजी कि बेचैनी आज कि बीमारी में बरबस याद आ जाती है ,मेरे दोस्त भी चिंतित हो जाते थे और मुझे बहलाने कि पूरी कोशिस करते थे। रिश्तों में न कोई छल-कपट थी न कोई कूटनीति थी ,न कोई स्वार्थ था। निश्छल रिश्ते हुआ करते थे ,रिश्ते ऐसे प्रगाढ़ हुआ करते थे कि एक के आँखों में आंसू दूसरे की भी आँखों को नम कर देती थी। एक के खिलौने सभी दोस्तों के खिलौने बन जाते थे ,एक ही थाली से सभी उठाकर खा लेते थे मजहब और जाति आड़े नहीं आता था। एक दूसरे के त्योहारों में हम इस तरह से एक दूसरे के घर जाते थे की जैसे अपना ही त्यौहार हो। शाम को माँ जब लकड़ी से चूल्हे पर खाना पकाती थी तो वहीँ पर पालथी मार कर बैठ जाना और गरम-गरम खाना खाना ,साथ में माँ का मनुहार की एक रोटी और खा ले ,वो यादें आज भी रुला देती हैं। जब कभी गांव जाना होता था तब दोपहर को दादी द्वारा अपने पास बैठाकर पंखा झलते हुए मनुहार कर-करके खाना खिलाना मेरी यादों का अनमोल धरोहर है।कागज के नाव और जहाज बनाने का अपना ही मजा था ,यदि मेरी नाव बरसात में सबसे आगे निकल जाती थी तो आँखों में ख़ुशी की चमक आ जाती थी। न बस्ते का उतना बोझ था न कोचिंग की मार।
अब बचपन को बस्ते के बोझ और पढ़ाई के दबाव ने ख़त्म कर दिया है ,अब तो ढाई से तीन साल के भीतर ही स्कूल पहुंचा दिया जाता है ,माँ-बाबूजी का स्थान माम-डैड ने लेलिया और गुरूजी का स्थान मैम और सर ने ले लिया ,स्नेह और आत्मीयता व्यवसायीकरण ने ले लिया ,हर चीज अब प्रोफेशनल हो गयी है। माँ की चूल्हे की रोटी का स्थान पिज्जा ,बर्गर ,पास्ता ने लेलिया। आज के बच्चे डिब्बा वाले दूध से पल -बढ़ रहें हैं। सुबह उठते ही स्कूल की जल्दी ,आने पर होमवर्क का बोझ ,बचे -कुचे समय में कार्टून फिल्म देखना और फिर सो जाना। बचपन इन्ही बोझ तले जवान हो जा रहा है।जितनी महगी शिक्षा उतनी ही अच्छी पढ़ाई का चलन बन गया है आज जब कोई मेरा नाम पूछता है तो बताने के बाद ये जरूर पूछता है आगे क्या लिखते हैं ,क्यूंकि मेरी पहचान वह आगे लिखी गयी चीज से ही करने का आदी हो गया है।वो दिन ख़त्म हो गए जब किसी की जाति और धर्म से हमें सरोकार नहीं था ,मस्त मौला होकर बाँहों में बाहें डालकर घुमा करते थे ,पर अब ऐसा नहीं रहगया ,ये विषबीज किसने बोया ,ये सभी जानते हैं की जो इसके फसल से अपना घर और दरबार चला रहें हैं ,उन्होने ही बोया ,आज ७३ साल के आजादी के बाद भी हम उसी विषबेल का पान कर एक दूसरे के अपनेपन से दूर हो रहे हैं ,हम अपनी मुलभूत समस्यायों की और न देखें इसीलिए हमे धीरे-धीरे इस अफीम रूपी नशे का पान कराया गया है ,हम ये नहीं समझ पा रहें हैं की गरीबी और भूख की कोई जाति नहीं होती। बचपन की मासूमियत अब कुटिल चालों की बिसात में उलझ गयी है ,कोई किसी का झंडा बुलंद किये हुए है कोई किसी का और हम अंध भक्त होकर पीछे-पीछे चलने को मजबूर हो जा रहे हैं ,ये नहीं समझ पा रहें हैं की जो लम्बरदारी का ठेका ले रहें हैं वो आपके कन्धों का इस्तमाल कर ऐशो आराम की जिंदगी जीना चाह रहे हैं ,और अपनी राजनीती चमकाना चाह रहें हैं। हमारे शिक्षित होने का क्या मतलब ,जब हम बिना विचार किये साथ खड़े हो जाते हैं।आज जिस तरह हम कुछ लोगों के द्वारा फैलाये गए मायाजाल में फंसते जा रहे हैं ,और उनकी ऊंचाइयों पर पहुंचने का माध्यम मात्र बन कर रह जा रहें हैं ,सोच भी नहीं पा रहे हैं ,कब हम इस मायाजाल को तोड़कर उनको एक करारा जवाब देंगे की हम केवल और केवल मनुष्य हैं हमारी समस्या एक है हमारी जरुरत एक है ,जिसदिन हम ये सोच लेंगे उस दिन किसी के लफ्फबाजी और लम्बरदारी में नहीं फंसेंगे और अपने तरह से जीना सीख जाएंगे ,अन्यथा कुछ प्रतिशत लोग ही मलाई काटते रहेंगे और मुफ्त के अनाज के सहारे जीने को मजबूर रहेंगे ,जब की मेरी मेहनत और खून पसीने से ही सब कुछ होता है ----------
तुम्हारा घर मेरे घर से बेहतर क्यों है
मेरे ही खून पसीने की सारी कमाई है
फिर चमक केवल तुम्हारे चहरे पर क्यों आयी है
मैं वादों में ही जीता रहा कि दिन बहुरेंगे
पर तुम्हारे ही चमक-धमक बढ़ते गए
हम तो आज भी वहीँ खड़े रह गए
मेरे ही कंधो का सहारा उन्हें कहाँ से कहाँ ले गया
मुझे रुला कर उन्होने अपनी हंसी खरीदी है
आज नहीं कल वो भी पछतायेंगे
जब आसमाँ से जमीन पे नजर आएंगे
इसीलिए आज भी जब शांत मन से जगजीत सिंह जी का वो गजल सुनता हूँ तो बचपन के यादों में खो जाता हूँ --
"ये दौलत भी ले लो ,ये शोहरत भी लेलो
भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी
मगर मुझको लौटा दो बचपन का सावन
वो कागज कि कश्ती वो बारिश का पानी".



Rahul Anuragi
जवाब देंहटाएंShayari aur kavitA ka 1 alag section bnaye
काश कोई मेरा बचपन लौटा दे.......... वाह बहुत बढ़िया��
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