मरने के बाद
एक समय था जब पूरा सिस्टम अतिसवेंदनशील समाज के प्रति था,क्या शासन-प्रशासन सभी ये प्रयासरत रहते थे की कहीं जनता को कोई तकलीफ न होऔर इसके लिए जागरूक रहते थे,हाँ ये अवश्य है की ये बहुत ही पुरानी बात हो गयी है।जैसे-जैसे भ्रष्टाचार बढ़ता गया सब सवेंदनशीलता मरती चली गयी,कमीशनखोरी का रेट बढ़ता गया और इंसानियत मरती गयी,ये प्रवृति यहाँ तक बढ़ती चली गयी की लाशों और कफ़न तक को नहीं छोड़ा गया।
आप कहीं की घटना लेलें चाहे मुरादनगर हो चाहे कोई नगर हो,जब अकस्मात् मौते हो जाती हैं तब हम जागते हैं और कठोर कार्यवाही करते हैं,लेकिन ये समझ में नहीं आता की घटना के पहले क्यों नहीं,जिस तरह से मीडिया में दिखाया जा रहा है की २८ से ३०%/ कमीशन सामने आ रहा,फिर इससे कम ठेकेदार भी नहीं बचाना चाहेगा,तो ४०%में कौन सी मजबूत इमारत चाहेंगे,आज नहीं तो कल तो गिरेगा ही,अब यहीं से विचार करने की बात है कि जो अधिकारी दण्डित किये गए घटना के बाद,ये कितने सवेदनशील रहे होंगे,ये तो घर बैठकर कमीशन लेकर सब पास कर दिए होंगे,किसी ने गुडवत्ता देखने कि जहमत नहीं उठायी होगी,अब सब बगलें झांक रहे हैं और कठोर कार्यवाही भी हो रही है,लेकिन देखने कि बात ये है कि ये कमीशन जो यदि लिया गया तो क्या जिले में भी पहुँच या ई ओ स्तर तक ही था,लेकिन एक चीज तो स्पष्ट है कि जिले में जो इसके प्रभारी बने बैठे हैं उन लोगों ने कभी मॉनिटरिंग कि,कभी नहीं,वास्तव में केवल सफ़ेद कागज़ पर सारी फाइलें आगे बढ़ती हैं और साथ में लगी गुलाबी कागज़ सारे कमियों को ढक लेता है,उसमे ही सारी ताकत होती है एक चेन बना हुआ है बस उसपर चलते जाइये कोई दिक्कत नहीं होगी,जब कभी घटना घटेगी तब देखा जायेगा,अभी तो ऐश कर लें।जब आप कमीशन इतनी ज्यादा धनराशि में लेंगे तो फिर मजबूत ईमारत की गारेंटी कैसे ले सकते हैं ?एक जगह घटना घट गयी तो हाय-तोबा मचा कुछ सच्चाइयां बहार निकल कर आ रही हैं,लेकिन क्या और सभी जगह सब १००%ठीक है सभी राजा हरिश्चंद्र की तरह काम कर रहे हैं इसकी गारंटी कौन लेगा?
कोई एक व्यक्ति कितना भी कर्मठ या ईमानदार हो जाये कितना भी मेहनत क्यों न कर ले जब तक ये भ्रष्ट अधिकारी बैठे रहेंगे तब तक कुछ भी नहीं हो सकता,ऐसी ही घटनाये नित्य-नए सामने आते रहेंगे,जो भ्रष्ट हैं और ये दावे के साथ कहा जा सकता है कि इनकी संख्या बढ़ती ही जा रही है जब तक इनके मंसूबो पर कठोर कुठाराघात नहीं किया जायेगा,इनके मंसूबो पर वज्रपात नहीं किया जाएगा,तबतक सिस्टम ठीक हो ही नहीं सकता।राजस्व विभाग देखें जिसे प्रशासन कि रीढ़ माना जाता है यहाँ कई ऐसे वीर लोग हैं जो एक्ट से परे जाकर भी आदेश करते हैं और लगातार करते चले जाते हैं,निडर से होगये हैं,केवल इसलिए कि कोई इस तरह कि गहन समीक्षा नहीं होती है,कभी कहीं से नहीं पूछा जा रहा कि जो आप कर नहीं सकते उसे कितने लोगों ने किया है,यदि हर छै माह पर ही गहनता से हर अधिकारी के कृतयों कि समीक्षा कि जाये और कठोर कार्यवाही कि जाए तो काफी हद तक रोका जा सकता है,योजनाए तो बहुत अच्छी बन जाती है पर जब उन जिम्मेदारों के पास जाता है जिसे लागू करना है तो वहां भ्रष्टाचार पनप जाता है,चाहे वो विकास विभाग हो,या राजस्व ,या स्वास्थ्य विभाग हो।सब निडर होकर बैठे हैं,क्यूंकि उनका कॉकस या यूँ कहें जिले में सेटिंग-गेटिंग बेहतरीन रहता है तो कौन कार्यवाही करेगा,जिस विभाग में बजट है वहां उसका बंदरबाट होता है,अब तो ये होड़ रहता है की कितना ज्यादा बाँट लिया जाये,व्यक्तिगत जेब में ज्यादा जाये उपयोग कम से कम में हो जाये,जहाँ बजट नहीं होता है वहां काम के पैसे मांगे जाते हैं कोई ये जिम्मेदारी से आकलन कराये की जिम्मेदार पद पर बैठे अधकारी या फिर उनके बेरोजगार रिश्तेदार कहाँ से एक बंधी बंधाई तनख्वा से अमीर बन बैठ रहे हैं,मेरा मानना है की इससे बहुत सी सच्चाई बाहर आ जाएगी,किसी के साले तो किसी के भाई-भतीजे अमीर मिलेंगे,इनका श्रोत क्या है अगर जाना जाये तो एक से एक कहानी सामने आ सकती है जिसपर एक बेहतरीन पिक्चर बनाया जा सकता है।इसके अतिरिक्त देखा जाये तो कई बार बहुत ही गंभीर अनिमितयता पकड़ी जाती है बहुत ही चर्चा में रहता है,कार्यवाही भी होता है फिर जनता सब भूल जाती है और अपराध करने वाला व्यक्ति पुनः धीरे से अपना पद प्रतिष्ठा पा लेता है किसी को खबर ही नहीं हो पाती है।कुछ तो अधिकारी जैसे लगता है की उनके कान पर जूं रेंग ही नहीं सकता,यही दर्शाता है जब बदायूं जैसी घटना हाथरस के बाद भी घटती है।निलंबन को तो अधिकारी एक गहना समझ बैठे हैं,थोड़े समय का बनवास फिर वही ढर्रा,सेटिंग कर फिर कोई अच्छी सी पोस्टिंग लेलेंगे।हर अधिकारी जिस क्षेत्र में नियुक्त हैं वहां से गोपनीय रिपोर्ट गोपनीय तरीके से ली जाए,उनके कार्यालयों में भी गुप्त तरीके से पूछ-ताछ कराई जाये तो कितनी अच्छी छवि उनकी है स्वयं स्पष्ट हो जायेगा।
यदि विगत २० से २५ साल का प्रत्येक ग्राम पंचायत का लेखा-जोखा निकाला जाये की उन्हें कितना बजट दिया गया किन-किन मदो में और किस-किस गलियों का किन-किन वर्षों में निर्माण किया गया,और कौन-कौन से निर्माण किये गए तो स्वमेव बहुत से रहस्य उजागर होने की सम्भावना रहेगी।यदि एक ग्राम को मिले अबतक के सारे बजट जोड़ लिए जाएँ और अनुमान लगाया जाये की इतने से क्या ये गांव अबतक पूरी तरह विकसित नहीं हो जाना चाहिए था तो उत्तर हाँ में ही आएगा,पर वास्तव में ऐसा नहीं होगा।इसी तरह नगर पंचायत,नगर पालिकाओं का भी निकलवाया जाये देखा तो जाये की सारा क सारा बजट कहाँ उपयोग हो गया और क्षेत्र भी विकसित पूरी तरह नहीं हो पाया।ये भी देखा जाये की इनमे लगे अधिकारी कितने विकसित हो गए हैं।एक समय था जब ग्राम पंचायतों में बजट न के बराबर होता था तब प्रधान का चुनाव इतना प्रेस्टीजियस नहीं होता था जितना की अब हो गया है,मिनी विधायक का ही चुनाव समझिये।
जबतक सभी विभागों में कुछ ठोस बिंदु समीक्षा के बनाकर हर तीन या छै माह में गहन समीक्षा नहीं की जाएगी तब तक अच्छे रिजल्ट की उम्मीद करना बेमानी होगा।क्यूंकि तभी ये भ्रम टूट पायेगा की सेवा वास्तव में सेवा ही है।ये जो मलाई और गैर मलाई की परिभाषा प्रचलित हो गया है सारे विवाद का जड़ ये ही है,ये सभी पर लागू है,जब तक ये भेद रहेगा अच्छे कामो की शत-प्रतिशत अपेक्षा करना बेमानी है।ये मलाई और सूखा क्या होता है किसी भी जिले में जाकर दोनों पदों पर बैठे हुए लोगों से मिलकर बेहतर महसूस किया जा सकता है।एक का बांग्ला गुलजार होगा तो एक लगेगा की वन में आ गए हैं बड़ी शांति महसूस होगी,ये राज काज लगता है ऐसे ही चलता रहेगा।लेकिन मुझे विशवास है की इसे तोडा जायेगा एक न एक दिन चाहे जैसे टूटे।ये मलाईदार और गैर मलाईदार का भेद कठोरता से ख़तम कस्र्णा पड़ेगा,लेकिन कैसे ये एक विकट और यक्ष प्रश्न बन गया है,जिले की सही तस्वीर ऊपर तक पहुंचे और ऊपर से ऐसी कार्यवाही हो की एक ऐतिहासिक नजीर बन जाये तभी स्थिति सुधर पायेगी,अन्यथा बस ऐसे ही चलता रहेगा।



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