सितम - हिंदी कविता - समझाविश बाबू

सितम पर सितम किये जा तू 
        हम वफ़ा ही किये जायेंगे 
        कितना भी दर्द से गमगीन हो दिल मेरा 
        पर तेरे आँखों में आसूं न आने देंगे 
        तू दुश्मन समझ या रकीब या कुछ और 
       तू महबूब है मेरी महबूब ही बनाये रहूँगा 
       सुना था बहुत नेकी का जमाना है 
       पर दिखा नहीं इसका कहाँ ठिकाना है 
       गम नहीं रहा इसका कभी मुझे 
       की मेरा दिल जख्मो से भर गया 
       रंज तो इतना है बस मुझे 
       इसे गैरों ने नहीं अपनों ने दिया 
       किस चौखट पर जाकर दर्द बयां करूँ 
       सुना है उस दर पर भी सुनवाई नहीं है 
       सोच रहा हूँ वाल्मीकि बन जाऊँ मैं
       शायद कोई मिल जाये नारद की तरह 
       सोच रहा हूँ बैठ जाऊँ बरगद की छांव में 
       शायद मिल जाये ज्ञान गौतम बुद्ध की तरह
       पर मन घबराता है यही सोचकर 
       दौर कोई रहे या आये 
       सत्य के लिए कर्ण ,भीष्म,द्रोण ही छले जायेंगे
       सीधे कब दुर्योधन,दुशासन मरे जाएंगे ।।  

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