रिक्शावाला - समझाविश बाबू [SAMJHAVISH BABU] ✪Hindi Blog✪
जब किसी रिक्शावाले के बारे में विचार आता है तो ज्यादातर एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति का सवारी बैठाकर रिक्शा खींचने की एक तस्वीर आँख के सामने घूम जाता है। यद्यपि जवान व्यक्ति भी रिक्शा चलाते हुए मिल जाते हैं लेकिन अधेड़ और वृद्ध ब्यक्ति ही ज्यादा मिलते हैं ,आज भी लगभग सैकड़ों साल से आदमी ही आदमी को रिक्शे पर बैठा कर गंतव्य पर पहुंचाने की परंपरा कायम रखे हुए है ,लगभग १२५ साल पहले कोलकत्ता में हाथ से रिक्शा खींचने की परंपरा पड़ी ,जिस पर बैठना उस समय एक स्टेटस सिंबल माना जाता था। लेकिन इस आधुनिक युग में भी आदमी ही आदमी को रिक्शे पर बैठा कर खिंच रहा है ,ये १००%निश्चित है कि उनके जीविका कि मज़बूरी ही उन्हे ये करने पर मजबूर करता है ,भूख कि लाचारी ही उन्हे मजबूर करती है ,अपने और अपने परिवार का पेट जो पालना होता है।
वास्तव में ये ही समाज के सबसे कमजोर वर्गों में आते हैं ,लेकिन हमें जब रिक्शे कि आवश्यकता होती है तो सारा अक्ल यहीं लगा देते हैं ,मोल-भाव ऐसे करते हैकि जैसे बहुत बड़ी बचत होने वाली है ,जबकि यदि टैक्सी से जाना हो तो कोई मोल -भाव नहीं होता और बड़े ही तहजीब से पेश आते हैं ,४०००-५००० रूपया में भी कोई मोल-भाव नहीं होता है। हद तो तब हो जाती है जब कुछ पड़े -लिखे लोग अनपढ़ों से भी बदत्तर व्यवहार करते हुए गालियां भी देना शुरू कर देते हैं। लेकिन कोई धनवान /अधिकारी /सक्षम व्यक्ति हो तो उसके सामने ऐसा मिमियायेंगे कि जैसे अभी उनको धनवान बना देगा।रिक्शेवाले की परिस्थिति नहीं देखते की वो आपको बैठाकर खींचने में पूरा कलेजा निकाल देता है। आज के समय में तो भाई-भाई को पिता पुत्र तक को खींचने को तैयार नहीं है। जब सड़कें ऊँची-नीची होती हैं और उसे सवारी बैठाकर ऊंचाई पर ले जाना होता है ,तब उसकी हिम्मत पस्त सी हो जाती है और अपनी सीट से उतर कर अपने शरीर की सारी ताकत लगाकर रिक्शा खींचने का प्रयास करता है और जब चढाई पार कर लेता है तो उसकी चेहरे पर एक शुकून के साथ उसकी लाचारी और बेबसी भी झलकती है। दुःख तो इस बात का है की अधिकतर सवारियां वो २० से ३० मीटर की दूरी में भी रिक्शे से उतरना अपने शान के खिलाफ समझती हैं , यदि वे सहयोग कर दें तो उसे काफी शुकून और सहूलियत मिल जाएगी। बहुत से रिक्शे वालों का कोई ठिकाना भी नहीं होता सड़क का फुटपाथ ही उनका ठिकाना और बिस्तर होता है । कई बेचारे तो बुखार आदि रोग से पीड़ित होते हुए भी रिक्शा चलाने के लिए मजबूर होते हैं ,ऐसे मजबूर इंसान से हम मोल भाव करते समय ये भूल जाते हैं की जो २-४ रुपया आप छोड़वाने का प्रयास कर रहे हैं ,उससे आप का कोई भला नहीं होने वाला है लेकिन उसका भला जरूर हो जायेगा। इनमे से कई सड़क किनारे एक त्रिपाल डालकर पूरे परिवार के साथ जीवन बसर करने को मजबूर हैं। हाँ ये अवश्य है की इन्हें भूख और नींद के लिए दवा नहीं खरीदनी पड़ती ,जबकि तथाकथित धनवान लोगों को इसकी जरुरत पड़ती है।
आज इस पर विचार करने की जरुरत है की इन्हें एक जीविका का साधन मुहैया कराकर कहीं व्यवस्थित करना जरुरी नहीं है ,क्या आज भी आदमी का आदमी को खींचने की परंपरा उचित है ?हम बड़ी -बड़ी योजना लांच करते हैं लेकिन ऐसे व्यक्ति को लाभ न मिले और वो इस परम्परा को निभाने के लिए मजबूर हों तो किसी योजना का क्या फ़ायदा ?आज समाज में भी एक परंपरा पड़ती जा रही है की हमे भी जिस तरह खाने में चटक मसाला पसंद है वैसे ही मिर्च मसाला भरी ख़बरें ज्यादा अच्छी लगने लगी है ,ऐसे लोगों के बारे में सोचने का वक्त ही किसी के पास नहीं है ,बॉलीवुड में किसी को छींक आ जाये ,ड्रेस चेंज हो जाये ,कोई कुछ भी कह दे तो हम उसी को लाइक और अनलाइक करने में लगे रहते हैं ,और हमें यही परोसा जाता है और ये बताया जाता है की ऐसे लोगों के फैन फालोवर बहुत बढ़ गए हैं।आजकल सही बातों के लिए किसी के पास फुर्सत ही कम है।
आज हम सभी का दायित्व है की समाज के कुछ ऐसे तबकों के बारे में न केवल सोचें बल्कि उनके लिए कुछ करने को कोई भी शासन हो उनका ध्यान आकृष्ट कराकर करने को मजबूर करें ,मेरा मानना है की जो हमें आज परोसा जा रहा है उससे हमारा ज्यादा कुछ भला तो नहीं होने वाला है ,हमारे युवा और युवतियों को इसमे आगे आकर पहल करनी होगी तभी ऐसे लोगों का न केवल भला होगा बल्कि एक सुन्दर समाज का निर्माण भी होगा।



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