सिविल सेवा ----- लोक सेवक - समझाविश बाबू

सिविल सेवा की अवधारणा सभी सरकारी विभागों में अधिकारीयों का एक ऐसा समूह तैयार करना था जो शासकीय नीतियों ,योजनाओं का क्रियान्वयन ईमानदारी से ऐसा करे कि जनता को उससे सीधा लाभ मिल सके ,कोई बिचौलिया न हो। इसकी शुरुवात इंडियन सिविल सर्विसेज एक्ट १८६१ के तहत भारतीय सिविल सेवा का गठन कर किया गया। ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी में जो वहां के नागरिक प्रशासनिक सेवाओं में शामिल थे उन्हे वहां कि सरकार सिविल सर्वेंट यानि ''लोक सेवक ''कहती थी।
          
 अतः शुद्ध सामान्य भाषा में कहा जाये तो ये जनता के सेवक कि अवधारणा से उत्पन्न हुए,अर्थात कांसेप्ट बहुत ही उत्तम था। इसी के आधार पर देश के सर्वोच्च पद को धारण करने वाले महत्वपूर्ण पद आई ए एस,आई पी एस ,आई ऍफ़ एस आदि का चयन संघ लोक सेवा आयोग द्वारा किया जाता है ,जो सबसे प्रेस्टीजियस देश के पद माने जाते हैं। उसी के तर्ज पर प्रदेशों में पी सी एस (प्रोविंशियल सिविल सेवा) के तहत महत्वपूर्ण पद एस डी ऍम ,सी ओ आदि का चयन किया जाता है। यहाँ सबसे अधिक इनकी विशिष्ट्ता यह है कि ये सत्ता के जवाबदेह नहीं होते बल्कि शासन के प्रति जवाबदेह होते हैं। यह एक बहुत ही विशिष्ट तथ्य है ,इसका तात्पर्य यह है कि ये ईमानदारी से अगर नीतियों और योजनाओं को जनता के हित में लागू करना चाहते हैं तो बिना अनुचित दबाव के स्वतंत्र रूप से कर सकते हैं। इनके प्रोत्साहन के लिए २००६ से २१ अप्रैल को नागरिक सेवा दिवस के रूप में मनाया जाता है। इतनी अच्छी अवधारणा के बाद आखिर क्यों दिन-प्रतिदिन इसमे गिरावट देखने को मिलती है ,आज क्या सेवक के रूप में काम कर रहें हैं ?अगर देखा जाये तो ये सेवक कि भावना से ऊपर उठते जा रहें हैं और शासक के रुप में परिवर्तित होते जा रहें हैं। ऐसे पदों को पाने कि लालसा बढ़ती जा रही है जिसमें सुख-सुविधा ज्यादा हो और जमाने के दस्तूर का स्कोप ज्यादा हो ,इसी होड़ में वो समझौतावादी प्रक्रिया के दौर से गुजर जाते हैं। जिले का आला अधिकारी बनना और सचिवालय में महत्वहीन पद के रुप में आसीन होना दोनों में बहुत अंतर होता है ,जिले में जो सच्चे सेवकों कि फ़ौज मिलती है जो ऐशो-आराम मिलता है वो कहाँ मिलेगा ''न हर्र लगे न फिटकरी ,रंग चोखा'' कहाँ मिलेगा। मैने खुद देखा है कि ज्यादातर लोग जिले से सचिवालय जाते हैं तो चेहरे कि रौनक मद्धिम हो जाती है। जिले में आला हाकिम के फरमान को पूरा करने के लिए होड़ मची रहती है,वो फरमान चाहे व्यक्तिगत ही क्यों न हो। एक और चीज़ देखने को मिलती है कि जो सर्वोच्च सेवा के लोग आ रहें हैं कई लोग ऐसे होते हैं जो अपनी बुद्धिमता को ही सर्वश्रेष्ठ मान बैठते हैं जो कदापि उचित नहीं है। सेवक कि भावना तो दम तोड़ती नजर आ रही है ,शासक कि भावना बलवती होती जा रही है। वी आई पी कल्चर जो हावी हो रही है जिसमे अपने को उसी श्रेणी में मानने का प्रचलन बढ़ता जा रहा है और अधीनस्थ में जो वी आई पी कल्चर का दस्तूर निभाने कि परंपरा बढ़ रही है वो कहीं न कहीं भ्रष्टाचार बढ़ने का भी एक प्रमुख कारण है। छोटा बड़ा हर अधिकारी इससे ग्रसित हो जाता है। कहने को तो प्रदेश में कहीं भी नियुक्ति हो सकती है लेकिन यदि डाटा निकलवाया जाये तो खास तौर से प्रादेशिक सेवा में मिलेगा कि काफी लोग पश्चिम जिले में ही लगभग पूरी नौकरी का समय व्यतीत कर देते हैं ,कुछ कवाल टाउन में। ये तो आम जनता भी समझ जाती है कि पश्चिम जिला विशेष तौर से गाजियाबाद और नोएडा क्यों पहली पसंद होती है। कुछ अधिकारी कि छवि अमुक काल के पॉवरफुल अधिकारी के रुप में बन जाती है जो किसी भी सेवा के लिए उपयुक्त नहीं है। जो प्रवृत्ति सीट बचाने और उसके लिए जुगाड़ करने कि बड़ रही है वो कहीं न कहीं प्रशासनिक गुणवत्ता को प्रभावित कर रही है। यदि सभी अधिकारी चाहे वो सर्वोच्च सेवा के हों या प्रादेशिक यह प्रण कर लें कि वो कहीं भी स्थान्तरित हो जाये वो अपनी लॉयल्टी से समझौता नहीं करेंगे तो निश्चित रुप में न केवल गुणवत्ता पूर्ण सुधार आएगा बल्कि भ्रष्टाचार में भी कमी आएगी ,साथ ही वी आई पी कल्चर को तोडना होगा अपनी तनख्वा को ही अपने जीविका का साधन मानना होगा तभी जो लाइलाज होती जा रही भ्रष्टाचार है उसपर अंकुश लग पायेगा। शासन को भी रैंडमली जिले-जिले में जाँच इस बिंदु कि करते रहना चाहिए कि कौन सा अधिकारी नियम विरुद्ध कार्य जो उसके अधिकार क्षेत्र से बाहर है उसे भी कर रहा है ,यदि पाया जाये तो कठोर कार्यवाही अमल में लायी जाये और ये भी सुनिश्चित कि जाये कि केवल पश्चिम जिले में ही नौकरी न कट जाये। ईमानदार पहल कि सख्त और त्वरित जरुरत है अन्यथा ऐसा न हो कि वो समय आ जाये जब चाह कर भी सुधार करना दुरूह हो जाये और भ्रष्टाचार हावी होता चला जाये।

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