पत्थर और पेड़ - समझाविश बाबू

पत्थर एक जड़ के रूप में विद्यमान है ,जिसके अंदर कोई चेतना  नहीं है। यही पत्थर ने आदिम समाज में आग के जनक के काम किया  था। पत्थर पर पत्थर रगड़ कर पहली बार आग उत्पन्न किया गया था ,जो बाद में दिया जलाने से लेकर भोजन पकाने तक का मार्ग प्रशस्त किया था। राह चलते पत्थर से टकरा जाने पर उससे उत्पन्न हुई पीड़ा यह बता देती हैकि देख कर चलना चाहिए।जिस  पत्थर को भगवान् की मूर्ति का रूप दे दिया जाता है वह पूजा जाने लगता है। जिस पत्थर से किसी महान पुरुष की मूर्ति बना दी जाती है वह भी सम्मानित हो जाता है। किसी पत्थर को जब छेनी-हथौड़े से तोड़ा जाता है तो उस समय भी अपने अंदर के चिंगारी को बाहर निकालकर अपना मौन विरोध प्रदर्शित कर देता है। भगवान् राम ने इसी पत्थर से समुद्र से जाने का मार्ग बनाया था। जैसी किद्वंती है उसको देखा जाये तो पानी में न डूबकर सत्य का मार्ग प्रशस्त किया था। आज भी पत्थर के सहयोग से सड़क बनायीं जाती है जो हमारे आने -जाने का मार्ग सुगम करती है। 


                               इसी प्रकार पेड़ को ले लिया जाए तो वो भी जड़ है ,लेकिन वह जिस शांत भाव से एक जगह खड़े रहकर बिना भेद-भाव के सबको छांव प्रदान करती है वह अनुकरणीय है ,ऑक्सीजन छोड़कर न केवल हमारे जीवन में सहायक बनती है बल्कि प्रदुषण को भी एक हदतक कम करती है। पेड़ निर्विकार भाव से सभी के साथ समभाव से व्यवहार करती है। कुछ पेड़ आस्था के अनुसार पूजे जाते है लेकिन इससे वे घमंड से इतराते नहीं बल्कि अपने जड़ों को और मजबूत कर लेते हैं जिससे मनुष्य का विश्वास  और मजबूत हो। पेड़ जब काट दिया जाता है या फिर अपनी आयु पूरी कर लेता है ,उस समय भी मनुष्य के काम ही आता है ,कितने  प्रकार से काम आता है की गिनाया नहीं जा सकता है।ये सभी मनुष्य जाति के लिए समभाव से काम आता है। अपने से उत्पन्न फलों के द्वारा भी मानव जाति का भला ही करता है। 

                            उपरोक्त दोनों उदहारण जो दिया गया वो जड़ अर्थार्त निर्जीव का है। अब चेतन की बात करते हैं जिसमे मनुष्य आता है जो अन्य की अपेक्षा अपने को सभी  प्राणियों में सबसे सर्वश्रेष्ठ मानता  है और है भी ,क्यूंकि उसी के पास बुद्धि -विवेक ,सूघने-देखने समझने की सभी शक्तियां विद्यमान है। लेकिन ये भी सही है की आत्मा जिसके कारण वह सजीव बना है यदि वह शरीर त्याग दे तो वह भी जड़ ही है। कहा जाता है की ''बड़े भाग्य मानुष तन पावा '। लेकिन आज हम क्या कर रहे हैं ,हमारे कृत्य जड़ से भी बदत्तर क्यों होते जा रहे हैं ,अपने स्वार्थ के आगे हमे कुछ नहीं दिखाई देता ,जड़ तो सम भाव से काम करते हैं और हम भेद-भाव से काम करने के आदि होते जा रहे हैं। जड़ तो हमे नुक्सान नहीं पहुँचा रहा और हम जड़ के साथ चेतन को भी नुक्सान पहुंचा रहे हैं ,कई जगह हम अपने गलत कामो का ठीकरा जड़ पर ही फोड़ देते हैं। पेड़ लगाने का बृहत् कार्यक्रम चलता है जिसे कभी-कभी हम भ्रस्टाचार के भेंट चढ़ा देते हैं और इल्जाम पौधों पर मड देते हैं ,सड़कें बनाने में भी खेल किया जाता है और बदनाम पत्थर होता है। हम अपने को श्रेष्ठ्तम प्राणी समझते हैं पर हर वो कृत्य  करने को आतुर हो जाते हैं जो जड़ भी नहीं करतीं ,हम अपने ही समाज के साथ जड़ से भी गद्दारी करने को आतुर हो जाते हैं ,जड़ तो जड़ को नुक्सान नहीं पहुँचाता लेकिन हम तो सबको नुक्सान पहुंचा देते हैं ,पेड़ और पत्थरों को भी नहीं बख्सते मनुष्य को तो जाने ही दीजिये। हम ये मान सकते हैंकि बाढ़ की विभीषिका में कई पुलें ,बांधे,बह जाती हैं जिसका दोष हम आसानी से बाढ़ पर डाल कर अपना दामन बचा लेते हैं लेकिन हमने जो भ्रस्टाचार किया है उसको उजागर नहीं होने देना चाहते हैं,ये हमारे श्रेष्ठ होने का प्रमाण है क्यूंकि हम बुद्धिमान  हैं तो उसका दुरपयोग करने का भी हमे पूरा हक़ है ,इसी के लिए हम अपने को श्रेष्ठ कह सकते हैं की ये शर्म की बात है। हम अपनों के ही जीवन को बचाने वाले जगहों पर भी अपने निजी लाभ के लिए जिसका हक़ हमे नहीं है वो-वो काम कर जाते हैं जो हमारे पूरे मनुष्य समाज को ही शर्मसार कर देती है ,एक कहावत प्रचलित है की मनुष्य ही मनुष्य को खा रहा ,तो इसका मतलब खाने से नहीं है लेकिन हम ही जिम्मेदार जगह पर बैठ कर यदि दूसरे के अधिकारों पर डाका डालेंगे तो वही कहावत चरितार्थ होगी। आज अपनों के बीच ही जो दूरियां बनती जा रही है और हम जड़ों से भी कुछ सीख नहीं पा रहे हैं ,हम अपने परिवार को ही नहीं संभल पा  रहे ,बातें बड़ी-बड़ी करेंगे। किसी भी गांव का एक मजबूर व्यक्ति यदि अपने काम से किसी भी कार्यालय में जाता है तो वहां बैठे हुए जिम्मेदार सभी नहीं पर ज्यादातर लोग ठीक ढंग से बात नहीं करते काम करना तो बहुत दूर है। हममे से यदि किसी के  स्तर थोड़ा सा अच्छा हो जाता  है तो वो  अपने से कम वाले को ऐसा देखता ही नहीं बल्कि ऐसा व्यवहार करता है जैसे वो कोई अन्य संसार  का प्राणी है।हम अपने गुनाहो से जड़ तक को  नुकसान पहुंचा देते है मनुष्य को तो छोड़िये।हम अपनों के बीच इतनी कटुता क्यों परोसते जा रहें हैं। स्वार्थ और भ्रस्टाचार की गंगोत्री इतनी द्रुत गति से न बहाएं की मानवता ही खतरे में पड़ जाये।पेड़ की तरह यदि कोई आज के युग के ढोंगी बाबा पूज लिया जाता है तो वो तो स्वयं को भगवान् ही प्रदर्शित करने लगता है ,और अपने को श्रेष्ठ बताने में सारा समय निकाल देता है जबकि वह शैतान से भी बड़ा देश और मानव समाज के लिए बाधक है।  

                        हम यदि अपने को सबसे श्रेष्ठ मानते हैं तो वैसा कृत्य भी करना पड़ेगा ,ऐसा क्यूँ है की जड़ कहे जाने वाले आज मूल्यों में हमसे बेहतर क्यूँ हैं।,आज ऐसी स्थिति क्यूँ उत्पन्न हो रही है कि हमे जड़ का उदहारण देना पड़ रहा है ,हमसे अन्य को सीखना चाहिए तभी तो हम श्रेष्ठ हैं ,समाज को जितना हम जोड़ने का काम नहीं कर रहे हैं उससे ज्यादा तोड़ने का काम कर रहे हैं ,पत्थर कि तरह मजबूत पेड़ कि तरह निष्काम ,निश्छल और सच्चे माने में लाभकारी बनिए। श्रेष्ठ्ता कहने से नहीं कृत्यों से होती है ,हमे वो काम करना है जो मानवी मूल्यों को पराकाष्ठा पर ले जाए न, कि ,वो काम करना है कि हम जड़ से भी बदत्तर कहलाएं। मानव हैं तो मानव कि तरह रहें जाति ,धर्म ,संप्रदाय से ऊपर उठ कर मनुष्यता के लिए जीयें और खुशी के काम आएं। मनुष्य के रूप में जनम लेने कारण हमारा सभी प्राणियों के प्रति भी कर्त्तव्य है लेकिन हम मनुष्यता को ही नहीं बचा पाएंगे तो अन्य प्राणियों कि क्या रक्षा करेंगे। हमारे देश के ऊर्जावान ,सामर्थ्यवान ,उत्साही युवा ही इस माहौल को पूरी तरह बदलने का प्रयास कर सकते हैं ,वह  ही एक नया मार्ग प्रस्तुत कर सकते हैं जो एक सड़ांध सा फ़ैल रहा है उस बदबू को सुगंध में ये ही परिवर्तित कर सकते हैं ,इस युवा में लड़कियां भी शामिल हैं क्यूंकि मेरा मानना है कि ये अगर चाह लेंगी तो हर नामुमकिन भी संभव हो जायेगा ,इनके अंदर धैर्य और समानता का भाव सबसे ज्यादा होता है।यदि हमने कुछ भी सही लिखा हो तो जरूर बताइयेगा या फिर कोई त्रुटि की है तो भी मार्गदर्शन करियेगा ,आप लोग ही मेरे प्रेरणा श्रोत हैं।    

 

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